चांदी की कटाोरी

यह प्रसंग सन्‌ १९४३-४४ के काल का है। श्री सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज उस समय ४-५ साल के बालक थे। उन दिनों मातोश्री लक्ष्मीबाई साहेब (जिन्हें सब मामी साहेब के नाम से जानते हैं) की सेवा में साळू बाई नामक एक वृद्धा श्रीजी के निवास स्थान पर रहा करती थीं। साळूबाई एक नियम था, वे प्रतिदिन अपने पूजा-पाठ के उपरांत श्री सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज को एक चांदी की कटोरी में दूध दिया करती थीं। एक दिन दूध पीने के बाद महाराजश्री ने खेल-खेल में चांदी की कटोरी उठाकर कुऍं में फेंक दी। इस कृत्य को देखकर मातोश्री लक्ष्मीबाई साहेब क्रुद्ध हो गईं और उन्होंने महाराजश्री की खूब पिटाई की।

उनके इस रोने की आवाज़ को सुनकरअनुष्ठान में बैठे हुए श्री शंकर माणिकप्रभु महाराज ने बाल सिद्धराज को बुलाकर उनके रोने का कारण पूछा। महाराजश्री द्वारा कारण बताए जाने पर श्री शंकर माणिकप्रभु हँसे और उन्होंने अपनी पूजा सामग्री  में से चाँदी की एक बड़ी कटोरी दी और कहा‘‘राजा, ये लो, इस कटोरी को भी कुंए में फेंक आओ!’’हाथ में चांदी की कटोरी लेकर महाराजश्री कुंए की ओर भागे और वह कटोरी भी उन्होंने कुंए में फेंक दी। पिता-पुत्र के इस विचित्र खेल पर मामीसाहेब ने जब विरोध जताया, तब श्री शंकर माणिकप्रभु महाराज ने कहा कि ‘‘सोने चाँदी जैसे बहुमूल्य वस्तुओं का मोह राजा के मन को कभी भी न छू पाए इसलिए मैंने वह कटोरी उसके हाथों से फिकवा दी। भविष्य में तुम्हारा राजा जब इस संस्थान की बागडोर को अपने हाथों में सम्हालेगा तब प्रभुसेवा के इस महायज्ञ में वह अपने हाथों से ऐसी अनगिनत बहुमूल्य वस्तुओं का दान करके प्रभु के कार्य का अभूत्पूर्व विस्तार करने वाला है। यह मेरा आश्वासन है।’’ आज जब हम श्री सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज के दिव्य कर्तृत्त्व का पुनरावलोकन करते हैं तब श्री शंकर माणिकप्रभु महाराज की उस भविष्यवाणी का स्मरण होता है।

 

गुरुपौर्णिमा के अवसर पर श्रीजी का प्रवचन

कल शुक्रवार २३ जुलाई को गुरुपौर्णिमा के अवसर नृसिंह निलय में गुरुवंदना का कार्यक्रम संपन्न हुआ। गुरुपौर्णिमा निमित्त माणिकनगर में सम्मिलित वेद पाठशाला के भूतपूर्व छात्रों द्वारा श्रीगुरु पूजन के साथ यह कार्यक्रम आरंभ हुआ। उपस्थित सद्भक्तों को संबोधित करते हुए श्रीजी ने नामस्मरण की महिमा पर सारगर्भित व्याख्यान्‌ किया। अक्सर साधकर यह नहीं समझ पाते हैं, कि सतत नामस्मरण करते रहने के बाद भी शास्त्रों में नामस्मरण का जो फल बताया गया है वह साधकों को क्यों नहीं मिलता। नामस्मरण का फल साधकों को न मिलने के १० कारण बताते हुए श्रीजी ने उन कारणों पर विस्तार से चर्चा की। प्रवचन के उपरांत भक्तजनों ने दर्शन एवं श्रीप्रसाद का लाभ लिया।

करीब दो – ढाई वर्षों की लंबी अवधि के बाद माणिकनगर में आयोजित पौर्णिमा पर्व के कार्यक्रम में बड़ी संख्या में उस्थित रहकर भक्तजनों ने कार्यक्रम को सफल बनाया। गुरु वंदना के कार्यक्रम में सम्मिलित समस्त भक्तजनों का हम अभिनंदन करते हैं।

भक्त के सम्मान की रक्षा

श्री शंकर माणिकप्रभु महाराज के काल में हुमनाबाद में गुंडप्पा नामक बहुत बडे व्यापारी रहते थे। गुंडप्पा श्री प्रभु संस्थान के अभिमानी सद्भक्त थे। जब भी संस्थान में कोई आर्थिक अडचन आती थी, तब महाराजश्री किसी सेवक को हुमनाबाद के बाजार में गुंडप्पा सेठ के पास भेज देते थे और गुंडप्पा साहुकार भी अविलंब अत्यंत उदारतापूर्वक धन की व्यवस्था कर देते थे। ऐसा कभी नहीं हुआ कि महाराजश्री किसी व्यक्ति को साहुकार के पास भेजें और वह व्यक्ति खाली हाथ लौट आए। एक बार किसी कार्य के लिए ३००० रुपयों की आवश्यकता पडी, तो श्रीजी ने संस्थान के एक व्यक्ति को गुंडप्पा साहुकार के पास भेजा। उस वर्ष व्यापार में नुकसान होने के कारण तंगी चल रही थी और साहुकार के पास पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं था। उस व्यक्ति ने जब श्रीजी को साहुकार की मजबूरी सुनाई, तब श्रीजी ने तुरंत उसी व्यक्ति को एक चिट्ठी देकर राजेश्वर ग्राम के किसी साहुकार के पास जाने को कहा और बोले कि राजेश्वर के साहुकार से ३००० रूपये लाकर गुंडप्पा सेठ को दे दो और फिर वही ३००० रु तुम उनसे लेकर मेरे पास आ जाओ जिससे बाजार में हमारे साहुकार का सर पहले जैसा ऊंचा ही रहेगा। वरना लोग उपहास करेंगे, कहेंगे ‘‘माणिकप्रभु का भक्त कंगाल हो गया। उसका दीवाला निकल गया। मैं नहीं चाहता कि बाजार में साहुकार के मान को ठेस पहुंचे।’’ महाराजश्री के निर्देशानुसार वह व्यक्ति राजेश्वर से धन लेकर गुंडप्पा साहुकार के पास पहुंचा और साहुकार को श्रीजी की यह योजना बताई तो वे अपने आंसुओं को नहीं रोक पाए। गुंडप्पा साहुकार सीधे माणिकनगर आए और उन्होंने महाराजश्री के चरणों को अपनी अश्रुधारा से धो डाला। जब भक्त के सम्मान की बात आती है तब सद्गुरु कैसे तत्परता से उस भक्त के सम्मान का रक्षण करते हैं, यह हमें इस अद्भुत प्रसंग से देखने को मिलता है। इस घटना के बाद, प्रभुचरणों में साहुकार की निष्ठा अधिक दृढ़ हुई और उन्होंने आजीवन अत्यंत निष्ठा के साथ प्रभुसेवा के व्रत को निभाया।