गादी अष्टमी के अवसर पर महापूजा

आज गादी अष्टमी के अवसर पर श्रीजी ने श्री मार्तंड माणिकप्रभु महाराज के समाधि मंदिर में महापूजा संपन्न की। सन्‌ १९१६ में इसी दिन श्री मार्तंड माणिकप्रभु महाराज को जिस स्थान पर श्रीप्रभु के दर्शन हुए थे वहॉं उन्होंने गादी की स्थापना की थी। १९१६ के उस पवित्रतम प्रसंग के स्मरण में प्रतिवर्ष माणिकनगर में गादी अष्टमी का उत्सव मनाया जाता है। आज गादी अष्टमी और श्रावण सोमवार का विशेष संयोग होने से कार्यक्रम में बड़ी संख्या में भक्तजनों की उपस्थिति रही। पूजन, भजन और आरती के उपरांत भक्तजनों ने श्रीदर्शन एवं महाप्रसाद ग्रहण किया।

हीरे की नथ

श्रीमन्मार्तंड माणिकप्रभु महाराज की बहन सौ. मुक्ताबाई अम्मा की यह बड़ी इच्छा थी कि उन्हें पुत्र संतति की प्राप्ति हो। विवाह के बाद उन्होंने ६ पुत्रियों को जन्म दिया परंतु पुत्रहीन होने की व्यथा उन्हें सदा सताया करती थी। अम्मा ने अपने मन की पीड़ा अपने भाई मार्तंड माणिकप्रभु महाराज के समक्ष रखी और ‘मेरी यह मनोकामना कब पूरी होगी?’ ऐसा सवाल महाराजश्री से पूछा। महाराजश्री बोले ‘अक्का, प्रभु का आशीर्वाद इतना सस्ता नहीं है उसे पाने के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। सेवा करने की तैयारी हो तो बोलो, मैं आपको एक उपाय बताता हॅूं।’ महाराजश्री की इस बात को सुनकर अम्मा व्याकुल होकर बोलीं ‘तुम जो भी सेवा करने को कहोगे, मैं करूंगी पर मुझे बेटा चाहिए।’

प्रभुमंदिर में आज जहाँ कैलास मंटप है वहॉं पहले बांस और लकड़ियों से बना एक मंटप था। महाराजश्री ने अपनी अक्का से कहा ‘अक्का, मंदिर में घांस का जो मंटप है, आज से उसकी साफ-सफाई की जिम्मेदारी आपकी। यदि निष्ठा से आप यह सेवा करेंगी तो आपकी कामना निश्चित पूर्ण होगी।’

अगले ही दिन से मुक्ताबाई अम्मा ने मंटप के साफ-सफाई की सेवा आरंभ कर दी। मंटप में झाडू लगाना, ज़मीन को गोबर से लीपकर संम्मार्जन करना तथा रंगोली बनाने का कार्य मुक्ताबाई अम्मा बड़ी निष्ठा से नित्य करने लगीं। ठंडी हो, गर्मी हो, या बारिश उन्होंने प्रभुसेवा में कभी भी खंड पड़ने नहीं दिया। मुक्ताबाई अम्मा ने अपनी कठोर तपस्या से आखिर प्रभु को प्रसन्न कर लिया और सोमवार २८ अक्तूबर सन्‌ १८९५ को उन्होंने पुत्ररत्न को जन्म दिया। श्रीजी ने अपने इस भांजे का नाम शंकर रखा, जो आगे चलकर श्री शंकर माणिकप्रभु के रूप में प्रसिद्ध हुए।

यद्यपि मुक्ताबाई अम्मा की मनोकामना पूर्ण हो चुकी थी तथापि उन्होंने सेवा को निरंतर जारी रखा। कालांतर में उस स्थान पर सन्‌ १९०० में मार्तंड माणिकप्रभु महाराज ने भव्य सभा मंटप का निर्माण करवाया और उसे कैलास मंटप यह नाम दिया।

मुक्ताबाई अम्मा जानती थीं, कि मंटप के सफाई की सेवा कितनी कठिन है और इसलिए उन्हें चिंता होती थी, कि उनके बाद इस सेवा में कहीं ढिलाई न आ जाए। यह सोचकर उन्होंने अपने भांजे बाबासाहेब महाराज को अपनी हीरे की नथ देकर कहा ‘इसे बेचकर कैलास मंटप में संगेमरमर का फर्श बिछवा दो।’ तदनुसार श्री बाबासाहेब महाराज मुंबई गए और वहॉं उन्होंने वह हीरे की नथ १९५० रुपयों में बेची। उस समय के १९५० रुपये का मूल्य आज लाखों रुपये होगा। उस धनराशि से श्री बाबासाहेब महाराज ने प्रभुमंदिर के कैलास मंटप में विद्यमान संगमरमर का फर्श बिछवाया। जीवन के अंतिम दिनों तक प्रभुसेवा में तल्लीन रहकर —- १९०९ को मुक्ताबाई अम्मा प्रभुस्वरूप में लीन हुईं।

(श्री संस्थान के अभिलेखागार में उपलब्ध इस दस्तावेज के आधार पर यह ज्ञात होता है, कि २२ फरवरी १९०९ को श्री बाबासाहेब महाराज ने मुंबई में मुक्ताबाई अम्मा की हीरे की नथ बेची, जिससे उन्हें १९५० रुपरे प्राप्त हुए। श्री बाबासाहेब महाराज की इस मुंबई यात्रा के हिसाब का संपूर्ण विवरण इस दस्तावेज में दर्ज है।)

प्रभुमंदिर का सौंदर्य बढ़ाने वाला वह भव्य कैलास मंटप और उस मंटप का वह ऐतिहासिक संगेमरमरी फर्श आज भी हमें मुक्ताबाई अम्म की उत्कृष्ट सेवा भाव का स्मरण दिलाता है और प्रभुचरणों की सेवा के प्रति सदा तत्पर रहने को प्रेरित करता है।

बत्तीस हत्ती

तेलंगाना में निजामाबाद के निकट एक स्थान है, जिसका नाम है शरणापल्ली, जिसे सिरनापल्ली के नाम से भी जाना जाता है। शरणापल्ली संस्थान निज़ाम रियासत का एक विख्यात परगना था। शरणापल्ली घराने की प्रख्यात रानी, चिलम जानकाबाई, श्रीमन्मार्तंड माणिकप्रभु महाराज की निष्ठावान्‌ शिष्या थीं। श्रीजी के कार्यकाल में श्रीसंस्थान की जो प्रगति हुई उसमें रानी जानकाबाई का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। माणिकनगर में समय-समय पर आयोजित होने वाले छोटे-बड़े उत्सव-महोत्सवों के समय प्रभुसेवा के अवसर प्राप्त करने के लिए रानी साहिबा बड़ी तत्पर रहा करती थीं। संस्थान को जब कभी भी उनसे किसी सहायता की अपेक्षा होती, वे बड़ी उदारता से अविलंब सहकार्य करतीं।

एक बार श्रीजी ने रानी जानकम्मा को मराठी में चिट्ठी लिखी। उस चिट्ठी का मुख्य वाक्य था ‘‘बत्तीस हत्ती पाठवून देणे’’ महाराजश्री की आज्ञा के अनुसार रानी जानकम्मा ने एक हाथी माणिकनगर भेजा और महाराजश्री को पत्र लिखा कि “फिलहाल केवल एक ही हाथी भेज रही हूं। हाथियों के देखरेख की पर्याप्त व्यवस्था होते ही बाकी के 31 हाथियों का प्रबंध शीघ्र ही हो जाएगा। महाराज इसे अन्यथा न समझें’’ जब महाराजश्री को पता चला कि, रानी ने हाथी भेजा है तो वे जोर से हँसे और बोले – मैं भला इस हाथी को लेकर क्या करूंगा मैंने तो कपास मांगा था और रानी ने हाथी भेज दिया। इस हाथी को वापस शरणापल्ली भेज दो।

दरअसल, कन्नड भाषा में कपास को हत्ती और दिये की बाती को बत्ती कहते हैं। पत्र में महाराजश्री ने लिखा था – बत्तीस हत्ती पाठवून देणे, बत्तीस हत्ती से महाराजश्री का अभिप्राय था, कि बत्ती बनाने के लिए हत्ती की अर्थात कपास की ज़रूरत है। महारजश्री ने प्रभुमंदिर में होने वाली आरती में लगने वाली बत्ती यानी बाती के लिए हत्ती यानी कपास मंगवाया था। महाराजश्री द्वारा पत्र में लिखा हुआ वह कन्नड मिश्रित मराठी वाक्य हमारे लिए तो आज अत्यंत आमोद जनक है परंतु ज़रा सोचिए, कि ‘बत्तीस हाथी भेज दो’ यह वाक्य पढ़कर उस समय बेचारी रानी का क्या हाल हुआ होगा!

तू चुकु नको आत्मा रामा

नौबतखान्यात मध्यरात्रीची नौबत व शहनाई वाजत होती. श्री मार्तंड प्रभूंनी शहनाई वाजविणान्यास बोलावून घेतले व विचारले ‘‘तू कुठलं गाणं वाजवीत होतास ?’’ शहनाईवाला घाबरून गेला व म्हणाला – ‘‘महाराज, कालच तुळजापूरचे काही गोंधळी आले होते, त्यांच्या तोंडून मी ही धून ऐकली, मला आवडली, म्हणून मी वाजवली.’’ महाराज म्हणाले – ‘‘असतील तेथून त्या गोंधळ्यांस बोलावून घेऊन ये.’’

दुसऱ्या दिवशी रात्री तो गोंधळी महाराजांपुढे हजर करण्यात आला. महाराजांनी गोंधळ्यांस तेच पद म्हणण्याची आज्ञा केली ज्याची धुन शहनाईवाल्यांनी वाजवली होती, गोंधळी आनंदाने गाऊ लागला

आम्ही चुकलो जरि तरि काही । तू चुकू नकोस अंबाबाई ॥

पुन्हा पुन्हा हेच पद महाराजांनी गोंधळ्याकडून म्हणवून घेतलं व स्वतः कलमदान घेऊन काहीतरी लिहू लागले. शेवटी महाराज तृप्त झाले व गोंधळ्याला व शहनाईवाल्यास इनाम देऊन त्यांची रवानगी केली.

गोंधळी जाताच महाराजांनी संस्थानच्या भजनी मंडळातील प्रमुखांना बोलावलं व त्यांना नवीन स्वरचित पद शिकवलं. त्या पदाचे बोल होते

आम्ही चुकलो निजहित काम ।
तू चुकू नकोस आत्मारामा ।।

महाराजांची ज्ञानलालसा व स्वरलालसा इतकी तीव्र होती की मामुली समजले जाणारे गोंधळी वाजंत्रीवाले इत्यादी वर्गातील लोकांतही जे काही गुण प्रशंसनीय होते, त्यांचे त्यांनी सदैव कौतुक केले. व त्या लोकांच्या चालींवर सुद्धा गहन गंभीर वेदांतपर पदांची रचना केली.

आमचा राजा

२८ फेब्रुवारी १९४५ रोजी श्री शंकर माणिकप्रभु, प्रभु चरणी लीन झाले. महाप्रयाणाच्या वेळी हणमंतराव कारभारी व व्यंकटराव रेगुण्डवार हे दोघे महाराजांच्या जवळ होते. महाराजांना उदरव्यथेनी वेदना होत होत्या. तरी त्यांना विनोद सुचला. महाराज व्यंकटरावाला उद्देशून  म्हणाले ‘‘व्यंकट, येतोस काय रे माझ्या बरोबर?’’ हे शब्द ऐकताच व्यंकटराव ओशाळला. काय उत्तर द्यावे हेच त्याला समजेना. ‘‘महाराज, मुले लहान आहेत…’’ वगैरे सबबी तो सांगू लागला. त्याचे उत्तर ऐकून महाराजांना हसू आवरेना. ते पाहून हणमंतराव म्हणाला ‘‘महाराज, मी आपल्या बरोबर येण्यास तयार आहे. आपण मला घेऊन चला.’’ महाराजांची चर्या गंभीर झाली. काही तरी विचार करून ते म्हणाले, ‘‘तुला मी घेऊन गेलो असतो रे हणमंत, पण मुद्दाम येथे ठेवून जात आहे. माझ्या मनात बरीच कार्य करावयाची होती. ती पुरी झाली नाहीत. आता आमचा राजा ती कामगिरी पार पाडील. आमचा राजा (श्री सिद्धराज माणिक प्रभु ) काय काय करणार आहे ते पाहण्याकरता तुला ठेवून जात आहे.’’ आणि काही क्षणानंतर महाराज समाधिस्थ झाले.

सन १९८१ पर्यंत ही हकीगत कुणालाच ठाऊक नव्हती. १९८१ च्या डिसेंबर महिन्यात श्री सिद्धराज माणिक प्रभूना संस्थानची सूत्रे हाती घेऊन २५ वर्षे झाली आणि रजत जयंती महोत्सव साजरा झाला. त्या दिवशी हणमंतराव महाराजांच्या भेटीस आले. व डोळयांतून अश्रू ढाळीत त्यांनी ही हकीगत महाराजांना सांगितली. व म्हणाले ‘‘श्री शंकर महाराज त्या दिवशी जे काही बोलले त्याचा अर्थ मला आता समजला. आपली ही २५ वर्षांची कारकीर्द मी डोळ्यांनी पाहिली. त्यांच्या ‘राजांनी’ केलेलं सारं काही मी पाहिलं. आता मला निरोप द्या. मला श्री शंकर माणिक प्रभूच्या चरणी जाऊन त्यांच्या राजांनी केलेलं सारं काही त्यांना सांगायचं आहे.’’