by Rashmi Mahajan | Nov 16, 2022 | Uncategorized
श्रीसिद्धांच्या पूण्यप्रद श्रीमाणिकनगरीचे वंशज||
संत मिरेसम हरीभक्त श्रीहराचे प्रिय-आत्मज||१||
प्रतिभावंत बुद्धिवंत सखोल आभ्यासु चिकित्सक वृत्ती||
लेखन काव्य वक्तृत्वासह भाषांवर प्रभुत्वाची व्याप्ती||२||
निस्वार्थी सदाचारी आवड सामजिक सेवाभावाची||
भावनाप्रधान निष्काम चर्येवर मुद्रा बालभावाची||३||
प्रज्ञा-कला-गुणांचा मनोहर मिलाफ श्री ज्ञानराजजी||
माणिकरत्नशिरोमणी शोभे प्रभूंच्या किरीटामाजी||४||
निरुपणाने ज्यांच्या होई अज्ञानाचा सहज लय||
आचरण ठेवता तद्वत जिव बने सुबुद्ध ज्ञानमय||५||
प्रभावी भाषाशैलीने करवता बिकट-परमार्थाचा सुलभ प्रवास||
भक्तवर्ग तुमच्या सत्संगात साधतो भौतिक आत्मिक विकास||६||
खंबीर नेतृत्वाने तुमच्या मिळालं श्रीसंस्थानाला नवं रुप-चेहरा||
भक्तवत्सला नित्य अन्नदानासह सुविधायुक्त केलात यात्री निवारा||७||
तुमच्या साहित्यसेवेचा ‘सकलमत सिद्धांत’ वंदनीय||
‘माणिकरत्न’ मासिकासह स्तोत्रं-ग्रंथ-पुस्तकं सुवाचनिय||८||
किती प्रेमाने अभिमानाने भक्त तुम्हास म्हणती श्रीजी प्रभु||
गुरुस्थानी तनुस तुम्ही जन्मदिनी स्विकारावे काव्यपुष्प हे विभु||९||
by Chaitanyaraj Prabhu | Nov 9, 2022 | Uncategorized

चैत्र शुद्ध प्रतिपदा के दिन श्रीजी ने संकल्प किया, कि आश्विनमास में ब्रह्मलीन श्री सद्गुरु सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज की आराधना जगन्नाथपुरी धाम में संपन्न की जाएगी। कहते हैं, कि संकल्प में महान् शक्ति होती है। उस संकल्प की परिपूर्ति भले ही ५-६ महीनों के बाद होने वाली थी परंतु यह संकल्प स्वयं श्रीजी का होने के कारण आयोजिन की यशस्विता उसी दिन सुनिश्चित हो गई थी। भक्तजनों को सूचित किया गया, कि वे इस यात्रा में सम्मिलित हो सकते हैं। जून तक संस्थान के कार्यालय में करीब-करीब ८०० यात्रियों के रेजिस्ट्रेशन हो चुके थे। ८०० से अधिक भक्तजनों के इतने विशाल समूह को यात्रा पर ले जाना एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य था। तदनुसार श्रीजी के समर्थ नेतृत्व में यात्रा की तैयारियाँ आरंभ हुईं। कार्यक्रम तथा यात्रियों की व्यवस्था के संदर्भ में कईं बार कार्यकर्ताओं की बैठकें हुईं और गहन विचार-विमर्श के बाद एक सुनियोजित योजना बनाई गई और तदनुसार कार्यकर्ताओं को उनकी जिम्मेदारियाँ सौंप दी गईं। संस्थान के सभी कार्यकर्ता संपूर्ण उत्साह के साथ तैयारियों में जुट गए।
८ अक्तूबर की शाम को माणिक पौर्णिमा पर्व का आयोजन हुआ। जगन्नाथ पुरी की यात्रा में भक्तजनों का मूल उद्देश्य क्या होना चाहिए इस पर चर्चा करते हुए श्रीजी ने अत्यंत बोधप्रद प्रवचन किया। प्रवचन के अंतर्गत अनन्य शरणागति के विषय पर बात करते हुए श्रीजी, मानो इसी बात का संकेत कर रहे थे कि जब हम भगवान् जगन्नाथ की शरण में जा रहे हैं तो हमारा भाव अनन्य शरणागति का होना चाहिए क्योंकि केवल इसी भाव से भक्त का उद्धार होता है। श्रीजी के प्रवचन के पश्चात् सभी यात्रियों को प्रवास तथा कार्यक्रमों से संबंधित महत्वपूर्ण सूचनाओं से अवगत कराया गया।

९ तारीख की सुबह श्रीजी ने श्रीप्रभु की आरती संपन्न की और यहीं से जगन्नाथ पुरी की यात्रा का श्रीगणेश हुआ। ‘‘श्री माणिको जगन्नाथः सर्वतः पातु मां सदा’’ हे प्रभु आप जगन्नाथ हैं अस्तु आप ही सदा सर्वदा सर्वत्र हमारी रक्षा करें तथा हमारे योगक्षेम का वहन कर इस यात्रा को सफल करें, ऐसी प्रार्थना करते हुए भक्तजनों ने श्रीप्रभु को नमस्कार किया। हैदराबाद की ओर निकलने वाली पहली बस के सामने नारियल फोड़कर बस को रवाना किया गया। महाद्वार के प्रांगण से सभी यात्रियों ने बस से सिकंदराबाद रेल्वे स्टेशन की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में सदाशिवपेठ के अय्यप्पा स्वामी देवालय में भोजन ग्रहण कर सब लोग स्टेशन पर पहुँचे। पूर्व तैयारियों के लिए संस्थान के कर्मचारियों की एक मंडली ट्रकों में सामान लादकर सड़क मार्ग से पुरी के लिए निकल चुकी थी।

रेल्वे स्टेशन के प्लेटफार्म पर जिधर देखो उधर केसरी रंग की टोपीयाँ पहने प्रभुभक्त ही दिखाई दे रहे थे। प्रभुभक्तों की उपस्थिति के कारण प्रायः कोलाहल से भरे हुए उस परिसर में एक विलक्षण प्रसन्नता छाई हुई थी। जहाँ एक ओर सभी यात्रीगण ट्रेन की प्रतीक्षा में आराम से बैठे हुए थे वहीं दूसरी ओर कार्यकर्ताओं की भाग-दौड़ लगातार जारी थी। स्वयं श्रीजी भी यात्रियों के बीच जाकर क्षेम-कुशल देख रहे थे। शाम के ४ बजे माणिकप्रभु महाराज की जय के जयघोष के साथ रेल्वे का प्रवास शुरू हुआ। ट्रेन की १४-१५ बोगियाँ प्रभुभक्तों से ही भरी हुई थीं। जैसे-जैसे जगन्नाथ स्वामी और भक्तजनों के बीच की दूरी कम हो रही थी वैसे-वैसे भक्तजनों का उत्साह और श्रीदर्शन की आतुरता बढ़ती जा रही थी। रेलगाड़ी की बोगियाँ भजन की धुनों से गूंज रही थी। मृदंग और तबले की ताल के साथ तेज़ रफ्तार से दौड़ रही रेलगाड़ी के पहियों की खडल-खडल की आवाज़ अत्यंत आह्लादक थी।

ए वन से एस टेन तक सभी बोगियों में छोटी-छोटी मंडलियां बनाकर भक्तजन प्रभु के नामस्मरण में रम गए थे। भजन और संगीत के माहौल में इतना लंबा रास्ता कैसे कट गया इसका किसी को भान नहीं रहा। भजन में मग्न भक्तजनों को देखकर महाराजश्री की एक रचना का स्मरण होता है, जहॉं वे कहते हैं ‘‘सद्गुरु चरणी ठेउनिया भार चालवी संसार तोची निर्भय’’ जो भक्त अपनी सांसारिक चिंताओं को गुरुचरणों में अर्पित करके भजन के रंग में दंग हो जाता है वही मृत्यु के भय से मुक्ति पाकर निर्भय बन जाता है।
रेलयात्रा के दौरान अलग-अलग स्टेशनों पर भोजन तथा उपाहार की व्यवस्था उन-उन स्थानों के भक्तजनों ने अत्यंत निष्ठा एवं आत्मीयता से की थी। रेल यात्रा के दौरान संस्थान के कार्यकर्ताओं ने यात्रियों के खान-पान की व्यवस्था इतनी अद्भुतरीति से की थी, कि उनकी जितनी तारीफ की जाए कम है। किसी-किसी स्टेशन पर तो खाने के बक्से चढ़ाने के लिए केवल १ मिनट का ही समय होता था लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी हमारे कार्यकर्ता पलक झपकने तक पानी की बोतलों सहित ८०० यात्रियों के भोजन का सामान बोगियों में चढ़ाकर ट्रेन निकले की राह देखते थे। सभी यात्रियों को ठीक समय पर उनके-उनके स्थानों पर खाने के पार्सल वितरित करने का जो कार्य कार्यकर्ताओं ने किया उसे देखकर रेल्वे के पैंट्री वाले भी परेशान हो गए थे।

१० तारीख की शाम को खोर्धा रोड स्टेशन पर उतरकर सभी यात्री सड़क मार्ग से पुरी धाम की ओर निकले। गोधूलि की वेला में जय जगन्नाथ की जय जयकार के साथ ८०० यात्रियों ने श्रीपुरुषोत्तमक्षेत्र में प्रवेश किया। जगन्नाथस्स्वामी नयनपथगामी भवतु मे। द्वारका के प्रासाद के द्वार पर खड़े सुदामा अपने प्रिय सखा से मिलने के लिए जैसे व्याकुल हो गए थे ठीक वैसी ही अवस्था पुरी पहुँचने के बाद यात्रियों की हो गई थी। पहली बार श्रीमंदिर के उत्तुंग शिखर का दर्शन पाकर और नीलचक्र पर लहराते हुए ध्वज को देखकर हमें जिस धन्यता की अनुभूति हुई वह वर्णनातीत है। भगवान् जगन्नाथ के दर्शन के लिए भक्तजन इतने अधीर थे कि कमरों में सामान रखकर स्नानादि संपन्न होते ही श्रीमंदिर की ओर भक्तजनों की होड़ लग गई। पुरी की सड़कों पर, वहाँ की गलियों में तथा मंदिर परिसर में प्रभुभक्त ऐसे घुल मिल गए थे जैसे अनेक वर्षों से उस स्थान से परिचित हों। पुरी नगर के नीलाद्रि भक्त निवास, नीलांचल भक्त निवास, गुंडीचा भक्त निवास तथा पुरुषोत्तम भक्त निवास के वातानुकूलित कमरों में भक्तजनों के आवास की व्यवस्था की गई थी। श्रीजी के मार्गदर्शन में यात्रियों के आवास की व्यवस्था अत्यंत सुनियोजितरीति से हुई थी।

११, १२ और १३ अक्तूबर – इन तीन दिनों की अवधि में भजन, प्रवचन तथा पूजा अर्चादि धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन नीलाद्रि भक्त निवास के सभाभवन में किया गया था। नित्य प्रातः विप्रमंडली की उपस्थिति में श्रीजी द्वारा श्रीप्रभु पादुकाओं की महापूजा संपन्न हुई। इस महापूजा में नित्यानुष्ठान के अंगभूत मधुमतीसहित श्रीदत्तात्रेयपूजन, श्रीचक्र का कुंकमार्चन तथा चैतन्यलिंग की रुद्राभिषेकयुक्त पूजा संपन्न होने के पश्चात् भक्तजन तीर्थ प्रसाद ग्रहण करते थे।

चार धामों में से पुरी का जो धाम है, वह भोजन के लिए प्रसिद्ध है। इस धाम में प्रभु के प्रसाद की महिमा असाधारण है। कहते हैं, कि भगवान् रामेश्वर में स्नान करते हैं, द्वारका में अलंकार धारण करते हैं, पुरी में भोजन और बदरीनाथ में विश्राम करते हैं। इसलिए पुरी धाम में यात्रियों ने प्रभु का प्रसाद ग्रहण करने के बाद जिस तृप्ति और समाधान का अनुभव पाया वह अलौकिक था। प्रभुभक्तों की क्षुधा मिटाकर उन्हें आनंदित करने के लिए साक्षात् माँ अन्नपूर्णा सकल वैभव से युक्त होकर पुरी धाम में सिद्ध हुईं थीं, ऐसा हमारा अनुभव रहा। भंडारखाने का जो भव्यरूप माणिकनगर में देखने को मिलता है उसी भव्य रूप के दर्शन हम सभीको पुरी धाम में भी हुए। व्यंजनों के प्रकार अधिक होने के कारण कुछ लोगों ने तो व्यवस्थापकों से शिकायत करते हुए कहा कि इतने पदार्थ मत बनाया करो हम समझ नहीं पा रहे कि क्या खाएँ और क्या न खाएँ। भगवान् दत्तात्रेय की झोली का प्रसाद तो मूलतः अत्यंत मधुर होता ही है परंतु पुरी धाम के संयोग से उस प्रसाद में जो अनुपम मिठास घुल गयी थी वह अवर्णनीय है। भंडारखाने में कार्यरत माणिकनगर से आए सभी कर्मचारियों ने रात-दिन परिश्रम करके खान-पान की ऐसी अद्भुत व्यवस्था की थी, कि सब देखकर आश्चर्यचकित रह गए। उल्लेखनीय है, कि एक ओर जहाँ हम सब यात्री पुरी धाम में विविध कार्यक्रमों का तथा दर्शन-महाप्रसादादि का आनंद ले रहे थे वहीं हमारे कार्यकर्ता निरंतर काम में लगे रहकर कार्यक्रम को सफल बना रहे थे। यात्रियों ने भी और विशेषकर महिला यात्रियों ने अत्यंत उत्साह के साथ विविध सेवाकार्यों में योगदान देकर आयोजन की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

यात्रा के आयोजन में श्रीप्रभु संस्थान के सभी कर्मचारियों एवं स्वंसेवकों का योगदान अत्यंत श्लाघनीय रहा। यात्रा की सफलता का सबसे बड़ा श्रेय इन्हीं कर्मचारियों एवं स्वंसेवकों को जाता है। ८०० यात्रियों के इतने बड़े समूह के साथ किसी नए स्थान पर ऐसा विशाल आयोजन करना कोई सामान्य बात नहीं है। प्रभु का अनुग्रह, श्रीजी का संकल्प और कार्यकर्ताओं के अथक परिश्रम के कारण ही इस असाध्य कार्य को अकल्पनीय सफलता प्राप्त हुई। जिम्मेदारियों का वहन करते हुए लोगों को तो दिखाई हम दे रहे थे परंतु वास्तव में गोवर्धन पर्वत तो किसी और ने ही अपनी कनिष्ठिका पर उठा रखा था।

पुरी धाम के माहात्म्य का वर्णन करते हुए बताया गया है, कि काशी में गंगास्नान का और रामेश्वर में २२ कुंडों के स्नान का जो महत्त्व है, वही महत्त्व पुरी धाम में समुद्रस्नान का है। १२ तारीख की सुबह प्रभुपादुकाओं को लेकर समस्त भक्तजनों के साथ समुद्र स्नान के लिए श्रीजी समुद्र तट पर पधारे। ‘‘श्रीमाणिक जय माणिक’’ गाते हुए सभीने समुद्र में प्रवेश किया। प्रभु के चरणस्पर्श के लिए समुद्रराज अत्यंत अधीर थे। तट से आकर टकराने वाली उन प्रचंड लहरों का उमंग और उत्साह अद्भुत था। जैसे कोई भूखा शेर अपने शिकार पर झपटता है ठीक वैसे ही सागर की भीषण लहरें प्रभुभक्तों पर आक्रमण कर रही थीं। ब्रह्मवृंद द्वारा मंत्रघोष के बीच श्रीजी ने प्रभुपादुकाओं का अभिषेक विधिवत् संपूर्ण करके संकल्पपूर्वक स्नान संपन्न किया। जो लोग कहते हैं कि समुद्र अत्यंत धीर-गंभीर होता है उन्हें एक बार पुरी के महोदधि के दर्शन करने चाहिए जो भगवान् के बालरूप की भांति अत्यंत नटखट है। समुद्र के उस उन्मत्त स्वरूप के दर्शन से सभी भक्तजन अत्यंत प्रफुल्लित हुए और सभीने जी भरकर लहरों में गोते लगाए। समुद्र स्नान तो हमने कईं स्थानों पर किया होगा परंतु यहाँ पर लहरों से मार खाने में, उनमें डूबकर बाहर आने में और ज़ोर की मार खा कर उछलकर तट पर गिर जाने में हमने जिस आनंद का अनुभव पाया वह अपूर्व था। श्रीमंदिर में चाहकर भी अपने प्रिय भक्तों का प्रेमालिंगन स्वीकार न कर पाने वाले जगन्नाथप्रभु जब भक्तजनों को अपने उर से लगाकर उन्हें अपने प्रेम और वात्सल्य से अभिषिक्त करना चाहते हैं तब वे समुद्र की लहरों में प्रगट होकर उन लहरों में आप्लावित प्रिय भक्तों को आलिंगन देकर उनपर कृपा करते हैं। रेतीले तट पर रखी हुईं प्रभुपादुकाओं से टकराती हुई लहरों का मोहक दृष्य देखकर एक क्षण के लिए लगा जैसे भगवान् जगन्नाथ और श्रीप्रभु का प्रेमालिंगन हो रहा हो। इस दृष्य को देखकर प्रभु महाराज की ही एक रचना का स्मरण हुआ जहॉं वे कहते हैं ‘‘कडकडोनि माणिकदास विठ्ठलासि भेटले!’’

समुद्र स्नान के पश्चात् श्रीजी ने भगवान् जगन्नाथ के दर्शन प्राप्त कर महाप्रसाद का लाभ लिया। इन ३-४ दिनों के दौरान सभी यात्रियों ने अनेक बार श्रीजगन्नाथप्रभु के दर्शन का लाभ लिया। जगन्नाथजी ने सबको अपनी ओर इतना आकर्षित कर लिया था, कि जब भी समय मिलता, लोग मंदिर की ओर कदम बढ़ा दिया करते थे। हज़ारों की भीड़ में और उन असंख्य लोगों में हम अपनी दो आंखों में प्रभु की छवि को संजोने में कितने सफल हुए यह तो मैं नहीं जानता पर हाँ इतना अवश्य कह सकता हॅूं, कि जगन्नाथ ने अपने विशाल नेत्रों से प्रत्येक भक्त पर कृपादृष्टि डालकर सभीका उद्धार किया है, इसमें संदेह नहीं है।
यात्रा के दौरान व्यवस्थापकों को कईं बार अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा। २-३ बार तो ऐसा हुआ, कि अनेक प्रयासों के बाद भी वे समस्याएँ नहीं सुलझ पाईं। सारे प्रयत्न करने के बाद सभी तरीके अपनाकर भी जब हम असहाय हो गए तब अचानक ही अपने-आप उन समस्याओं का निराकरण हो गया। शायद प्रभु हमें यह बता रहे हों कि तुम चाहे लाख प्रयत्न कर लो पर जब तक मेरा हाथ नहीं लगता तबतक काम पूरा नहीं हो सकता। संपूर्ण यात्रा के दौरान हमें पग-पग पर इस बात का आभास हो रहा था।

आश्विन कृष्ण तृतीया बुधवार १२ अक्तूबर को श्री सद्गुरु सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज के सांवत्सरिक श्राद्ध का विधान परंपरानुरूप संपन्न हुआ। अगले दिन १३ अक्तूबर को ब्रह्मलीन महाराजश्री की आराधना का कार्यक्रम नीलाद्रि सभागृह में अत्यंत भव्यरीति से परिपूर्ण हुआ। प्रभुभक्तों की उपस्थिति से कार्यक्रम स्थल का संपूर्ण वातावरण माणिकमय बन चुका था। लगभग १२०० किलोमीटर सुदूर उत्कल प्रांत में होने के बाद भी लग रहा था जैसे हम माणिकनगर के ही किसी सभा भवन में हों। आराधना के कार्यक्रम में अत्यंत प्रेमभरित अंतःकरण से सम्मिलित होकर उपस्थित भक्तजनों ने सद्गुरुचरणों में अपने श्रद्धासुमन अर्पित कर श्रीकृपा संपादित की।

नित्य सायं सभाभवन में भजन और प्रवचन के कार्यक्रम आयोजित हुए। श्रीआनंदराजजी ने वाद्यवृंद और सहगायकों के साथ मिलकर सुप्रसिद्ध सांप्रदायिक रचनाओं को गाकर प्रभुचरणों में भजनसेवा समर्पित की। श्रीजी ने गीता के १३वें अध्याय के ज्ञानसाधनरूप ५ श्लोकों के विशद एवं अभिरम्य विवेचन से श्रोताओं का उद्बोधन किया। जगन्नाथ के परमपावन सन्निधान में सद्गुरु की कल्याणकारी वाणी का लाभ पाने वाले वे सभी भक्तगण अत्यंत सौभाग्यशाली हैं।

माणिकनगर में प्रभु के आंगन में कोल की जो शोभा होती है वही शोभा, वही भव्यता रासप्रिय जगन्नाथ के सन्निधान में भी देखने को मिली। जिस आनंदघन सद्गुरु ने हमारे जीवन को सुख, समृद्धि और प्रसन्नता से भर दिया हो उस सच्चिदानंद की आराधना तभी हो सकती है जब हम उन आनंददायी चरणकमलों को अपने हृदय के आनंदप्रवाह से अभिषिक्त कर उस आनंद को सर्वत्र प्रसृत करें। असीम आनंद को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करना जब असंभव हो जाता है, तब वह आनंदमग्न व्यक्ति नाचने-गाने लगता है, हंसने-रोने लगता है। लोग उसे पागल कहते हैं, उस पर हंसते हैं परंतु वह भक्त जिस आनंद का अनुभव पा रहा होता है उस आनंद को केवल तभी जाना जा सकता है जब हम भी उसीकी तरह पागल बनें। ‘‘किति वर्णू मी सुख हे अहाहा। संगीत साम हा ऊ हा। धन्य धन्य बोधक गुरु हा। मिठि घालिन मी परशिवघनरूपाला। ज्ञानरूप मार्तांडाला॥’’ हमारे सद्गुरु की रचनाओं को गाने में और उन गीतों के ताल से ताल मिलाकर नाचने में जो सुख है, वह स्वर्ग और वैकुंठ के सुख से कईं गुना अधिक श्रेष्ठ है। माणिकनगर के समस्त प्रभुभक्तों ने इस अद्भुत भजनानंद क्रीड़ा से, आयोजन की शोभा कईं गुना ब़ढ़ा दी।
कार्यक्रम के अंत में श्री आनंदराज जी ने अपना मनोगत व्यक्त करते हुए अत्यंत सुंदर भाषण किया। सभी यात्रियों को श्रीजी ने महाप्रसाद देकर अनुग्रहित किया और इस प्रकार यह ऐतिहासिक एवं अविस्मरणीय यात्रा अत्यंत भव्य-दिव्यरीति से संपन्न हुई।
१४ अक्तूबर की सुबह सभी यात्रियों ने भुवनेश्वर के लिए प्रयाण किया। भुवनेश्वर के अत्यंत प्राचीन एवं ऐतिहासिक श्रीलिंगराज देवालय में जाकर श्रीजी सहित समस्त भक्त परिवार ने दर्शन एवं प्रसाद प्राप्त किया। मंदिर के प्रांगण में सद्भक्तों ने महाप्रसाद का लाभ लिया और वापसी की रेल यात्रा के लिए रेल्वे स्टेशन की ओर निकले।जगन्नाथस्वामी की परमपवित्र भूमि को अंतिम नमन करके सभी यात्रियों ने दोपहर ३ बजे भुवनेश्वर से हैदराबाद की ओर प्रस्थान किया।

तैयारियों के लिए मई के महीने में जब हम पुरी गए थे तब वहाँ के स्थानीय लोगों ने हमें बताया था, कि अक्तूबर के महीने में पुरी प्रांत में जोरदार बारिश रहती है। इस बात को ध्यान में रखकर हमने भी नियोजन के संदर्भ में कुछ पूर्व तैयारियाँ की हुईं थीं। पुरी के लिए निकलने के एक दिन पूर्व जब हमने पुरी के लोगों से वहाँ के मौसम का हाल जाना और पता चला कि वहाँ लगातार वर्षा हो रही है। सिकंदराबाद से जब हम निकले तो पूरे रास्ते में बारिश थी। सारे व्यवस्थापक बड़े चिंतित थे, कि इसी तरह बारिश होती रही तो अनेक समस्याएँ हो सकती हैं। परंतु प्रभु की कृपा से जहाँ हम उतरे वहाँ, खोर्धा स्टेशन पर बिल्कुल बारिश नहीं थी। वहाँ का वातावरण देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई लेकिन मन में डर बना हुआ था, कि कहीं अगले ३-४ दिनों तक पुरी में बारिश न हो। जगन्नाथ का चमत्कार देखिए, कि संपूर्ण कार्यक्रम के दौरान पुरी का नभमंडल निरभ्र था और तेज़ धुप छाई हुई थी। लेकिन कार्यक्रम के समापन के बाद जब हम भुवनेश्वर से निकले तभी सारे प्रदेश में बारिश ने कहर मचा दिया। केवल देखने मात्र से चमत्कार नहीं दिखते, उन्हें अनुभव करना पड़ता है।

यात्रा के दौरान समस्त यात्रियों ने सभी नियमों तथा समय का अत्यंत अनुशानबद्धरीति से पालन किया। विनय, संयम और अनुशासन से व्यवस्थापकों के साथ अत्यंत उत्तम सहकार्य करके सभी यात्रियों ने आयोजन को अभूतपूर्व सफलता प्रदान की। भक्ति और श्रद्धा के साथ अत्यंत स्नेहपूर्वक यात्रा में सम्मिलित हुए सभी यात्रियों का हम प्रभुसंस्थान की ओर से हार्दिक अभिनंदन करते हैं।

१५ तारीख की शाम को गुलबर्गा रेलवे स्टेशन पर उतरकर यात्री हुमनाबाद पहुँचे। हुमनाबाद रेल्वे स्टेशन पर हुमनाबाद के अनेक गणमान्य नागरिकों ने पुष्पमालाओं से श्रीजी का स्वागत किया। हुमनाबाद से माणिकनगर के मार्ग में विविध स्थानों पर श्रीजी के वाहन को रोककर प्रतिष्ठित नगरवासियों ने तथा भक्तजनों ने श्रीजी का स्वागत किया। माणिकनगर वासियों ने अत्यंत भव्य स्वागत समारंभ का आयोजन किया था। हुमनाबाद स्थित महाद्वार से लेकर माणिकनगर तक नवयुवकों द्वारा जयकारों के बीच श्रीजी का आगमन हुआ। ढोल-ताशों की गड़गड़ाहट के बीच श्रीजी ने क्षेत्ररक्षक श्रीकालाग्निरुद्र हनुमान की आरती संपन्न की और प्रभुमंदिर की ओर निकले। श्रीजी के आगमन से सारे तरु पल्लव प्रफुल्लित थे। गुरुगंगा को छूकर निकलती हुई सर्द हवा के वात्सल्यमय झोंके से माणिकनगर ने श्रीजी का स्वागत किया। आरती के सुसज्जित थाल, नभमंडल में आतिशबाजी की चकाचौंध, पुष्पवृष्टि, वाद्यों की गूंज, और लोगों की भीड़ से महाद्वार के प्रांगण में उत्सव का वातावरण छाया हुआ था। महाद्वार से अंदर प्रवेश करने के बाद जैसे ही प्रभुमंदिर के शिखर के दर्शन हुए हमारी सारी थकान क्षणभर में मिट गई। नौ सीढ़ियाँ चढ़कर श्रीजी ने यात्रियों के साथ प्रभु मंदिर में प्रवेश किया। ‘‘मुक्ति भुवन सुर प्रयाग गंगा। तूचि आह्मा त्रिपदी आणि काशी।।’’ इन्हीं नौ सीढ़ियों के ऊपर स्थित जो परमपावन सन्निधान है वहीं पर हमारी काशी, मथुरा, पुरी और रामेश्वरादि सकलतीर्थ बसते हैं। हमारी प्रतीक्षा में प्रभुमहाराज अत्यंत प्रसन्नमुद्रा में विराजित थे। 800 भक्तों से भरे हुए रथ को खींचकर सभी के योगक्षेम का वहन करते हुए पुरी की यात्रा करवाकर हमें सुखरूप वापस लेकर आने वाले प्रभुमहाराज, इतने प्रचंड कार्य को पूर्ण करने के बाद भी अकर्ता की तरह अलिप्तभाव से बैठे हुए थे। जैसे उन्होंने कुछ किया ही न हो! श्रीजी ने श्रीप्रभु की आरती की और अवधूत चिंतन के जयघोष के साथ इस अद्वितीय यात्रा का समापन हुआ।
by Manikrao Agraharkar | Nov 9, 2022 | Uncategorized

प्रभु ने मुझे अपनाया
दुनिया ने मुझे ठुकराया।
प्रभु ने मुझको अपनाया।।
किस जगह से मैं आया।
क्या क्या मैंने पाया।
ये तो प्रभु जाने।।१।।
मैं जीवन भर रोता ही रहा।
प्रभु ने मुझे हँसने को कहा।।
बस हुआ इधर उधर भटकना।
प्रभु के चरणों में अब रहना।।
कोई न बोले मुझको यहॉं से उठ।
मैंने अभीतक तुझसे कुछ मांगा नहीं। क्या मांगूं मैं तुझसे हे प्रभो? सबकुछ तूने ही मुझको दिया है। दो हाथ मिले हैं काम करने के लिए। दो आंखें मिली हैं तेरे दर्शन के लिए। दो कान मिले हैं तेरा गुणगान सुनने के लिए। जिह्वा मिली है तेरे नामस्मरण के लिए। दो पैर मिले हैं तेरे मंदिर जाने के लिए। फिर भी मैं कहता हूँ कि मुझको तू कुछ तो दे दे।
प्रभु बोले – अरे मूर्ख इन्सान, जो तुझको मैंने दिया है पहले उसीकी कदर करले फिर उसके बाद मुझे बताना कि मैंने तुझको क्या नहीं दिया?
by Uma Herur | Nov 9, 2022 | Uncategorized
परमपूज्य सद्गुरु श्री माणिक प्रभु महाराजांनी श्री बाळकृष्णाच्या लीलांवर अनेक सुंदर सुंदर भावप्रधान काव्ये केलेली आहेत. ती वाचताना खूप आनंद मिळतो. गोपगोपींचं श्रीकृष्णावरचं प्रेम वाचताना आपण तन्मय होऊन जातो. काव्यातून वर्णिलेले प्रसंग जसेच्या तसे डोळ्यांसमोर उभे राहतात आणि त्या भावभावनांमध्ये आपण तल्लीन होऊन जातो.
पण या काव्यांची एक खासियत आहे. आपण या काव्यांचा जसा अभ्यासपूर्वक विचार करू तसतसे ते शब्द आपल्याला आत्मचिंतन करावयास भाग पाडतात. वेदांतिक वचने आपल्याला मार्गदर्शक होतात. स्वरूप–साध्याच्या मार्गावर ते ईश्वरी चैतन्यच साधकाला कसं आधारभूत होतं, अशा प्रकारचा सुंदर पण गूढ गर्भितार्थ या काव्यांमध्ये दडला आहे.
पुढील काव्य अशाच प्रकारचे सुंदर व गूढगर्भ आहे. परमपूज्य सद्गुरु श्री माणिकप्रभु यांच्या मंगल पावन चरणी शरण राहून त्याचे विवरण करण्याचा प्रयत्न मी करते आहे.
काव्य:
पहा यशोदे तुझा लेक खोडी
जाऊनी दही दूध मडकी फोडी ।।धृ।।
येतसे नित्य गृहाप्रति माझ्या
लहानसे वासरू वनाप्रति सोडी ।।१।।
जात असतां यमुनेच्या पाण्या
मागुनी येऊनी वस्त्रचि फेडी ।।२।।
माणिक म्हणे वर्णितां याचे गुण
शेषहि शिणला माझी मति थोडी ।।३।।

ही एक गोपी यशोदेकडे कृष्णाचे गाऱ्हाणे घेऊन आलेली आहे आणि सांगतेय की तुझा लेक अत्यंत खोड्याळ आहे. ‘तुझा लेखक खोडी‘ यातला खोडी म्हणजे खट्याळ किंवा खोड्याळ हा शब्द बहुदा लहान मुलांच्या ज्या वात्रट लीला असतात त्यासाठीच वापरतात. लहान मुलांच्या खोड्यांनी मोठ्यांना त्रास होतो पण संताप येत नाही किंवा याला काही मोठी शिक्षा करावी असेही वाटत नाही. किंबहुना ‘किती लबाड हो हा, कसं त्याचं डोकं चालतं‘ म्हणून आत लपवून ठेवलेलं कौतुकही बाहेर येतं. असाच काहीसा भाव, यशोदेकडे, कृष्णाचं गाऱ्हाण सांगताना या गोपीचा आहे.
ही गोपी यशोदे कडे तक्रार करतेय की, ‘येतसे नित्य गृहाप्रति माझ्या, लहानसे वासरू वनाप्रति सोडी।।‘. ती म्हणते हा कान्हा माझ्याकडे नित्याचा येतच असतो, पण गप्प बसत नाही. ते लहानसे पाडस वनाच्या दिशेने सोडतो. आता त्या बिचार्या वासराला काय कळतंय? कुठेतरी उंडारलं नी वाट चुकलं, रानात श्वापदं समोर आली, तर काय करील ते?’
परमपूज्य सद्गुरु श्री प्रभुजींनी वेदांतिक तत्वज्ञान मोठ्या खुबीने या गोड तक्रारीमध्ये गुंफलेले आहे. आत्मारामाची स्फुरणे नित्याची येतच असतात. मनाच्या दरवाजातून बाहेर पडणारी वृत्ती तशी कोवळीच असते. पण बाहेरच्या जगात, विषयांच्या निबिड अरण्यात शिरली की तिच्यावर काय आणि कोणते परिणाम होतील सांगता येत नाही. मग ती अध:पतनाला कारणही होऊ शकते. म्हणून तर त्या वासराला एकटं न सोडता त्याच्याबरोबर बुद्धि–विवेकाचा गुराखी हवाच.
आतां गोपीची अवस्था अशी झाली की आतां तक्रार तर केलीच आहे ना, मग सर्वच खोड्या सांगून टाकाव्या! यशोदेला ती सांगते, ‘जात असतां यमुनेच्या पाण्या, मागुनी येऊनी वस्त्रचि फेडी ।।‘ यमुनेच्या पाण्याला जाणे, म्हणजे तिथे स्नान करून, वस्त्र स्वच्छ धुवून, पुन्हा घागरीत पाणी भरून घरी आणणे आणि हा रोजच्या रोज नित्याचा उपक्रम होता.
परमार्थिकदृष्ट्या या ओळींच्या लक्ष्यार्थाचे चिंतन केल्यास असं ध्यानात येतं की, यमुनेचा प्रवाह हा साधनेच्या प्रवाहासारखा आहे. प्रामाणिक साधक नित्याने या साधन–यमुनेच्या पाण्यात स्नान संध्या करीत असतो. ते त्याच्या अंत:करण शुद्धीसाठीच! जीवाचे आत्मचैतन्य हे पंचकोशांच्या आवरणांमध्ये अवगुंठित असते. हे पंचकोशच त्याची वस्त्रे असतात. साधक जेव्हा ह्या आत्मस्वरूपाकडे जाण्याचा प्रयत्नात असतो तेव्हा त्याला या, अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय कोशांना ओलांडूनच आनंदमयात प्रवेश करावा लागतो. तेथेच जीवाशिवाचे मिलन होते, अद्वैत होते. या सर्व प्रयत्नांना आत्मचैतन्याचेच अधिष्ठान असते. त्याच्याशिवाय या क्रिया होऊच शकत नाहीत. म्हणून सद्गुरु प्रभुजींनी ‘मागुनी येऊनी वस्त्रचि फेडी‘ ही काव्यपंक्ती त्यांच्या अलौकिक विचक्षण प्रज्ञेने लिहिलेली आहे. आता पंचकोशांची ही वस्त्रे फेडली तर, ‘तुका झालासे पांडुरंग‘ ही अवस्था येणारच. ‘अवघा देवचि झाला पाही । भरोनिया अंतर्बाही ।।‘
परमपूज्य सद्गुरु प्रभुजींनी या काव्याच्या पहिल्या दोन कडव्यांत साधकाच्या बाह्य साधनेत ईश्वर कसा परिणाम करतो आणि तिसऱ्या कडव्यात त्याच्या अंतरंग साधनेत कसा परिणाम करतो हे गोपीच्या तक्रारीच्या रूपाने निर्देशित केले आहे.
म्हणूनच सद्गुरु श्री प्रभुजी म्हणतात, ‘माणिक म्हणे वर्णितां याचे गुण, शेषहि शिणला माझी मति थोडी ।।३।।‘ खरं तर जो मुळात निर्गुणच आहे त्याचे गुण कसे काय वर्णन करणार? पण सत्य हेच आहे की कर्ता करविता तर तोच आहे. म्हणून संत तुकोबाही म्हणतात ‘तुझं वर्णी ऐसा तुजविण नाही । दुजा कोणी तिन्ही भुवनी।। सहस्त्रमुखे शेष शिणला बापुडा। चिरलिया धडा जिव्हा त्याच्या ।।‘ त्याचे गुण वर्णिताना शेषाच्या सहस्त्र जिभाही चिरल्या गेल्या असे म्हणातात. तेव्हा श्री प्रभुजी म्हणतात, ‘त्याच्यापुढे माझी मती थोडी।।‘
इतका खोल गर्भितार्थ असलेले तत्त्वज्ञान प्रभुजींनी गोपीच्या भावभावनांच्या इतक्या सुंदर शब्दात उद्धृत केलेले आहे. त्यांच्या अचाट, अजन प्रज्ञेची झेप माझ्यासारख्या अज्ञानी साधकाने कशी वर्णावी? पण ज्ञानोबा माऊलींचे शब्द आठवले, ‘वस्तुत: जरी मी मूर्खू । हातून घडे अविवेकु । तरी पुढे मार्गदर्शकु । संत कृपेचा दिपु आहे ।।‘ आणि या काव्याचे विवरण माझ्या तोकड्या शक्ति–बुद्धीप्रमाणे केले आहे. सद्गुरूंनी यामध्ये झालेल्या चुकांची क्षमा करून मार्गदर्शन करावे, ही त्यांच्या पावन मंगल चरणी प्रार्थना करते.
सद्गुरु चरणी अनन्यभावे प्रणाम!
by Devidas Keshavrao Deshmukh | Nov 1, 2022 | Uncategorized
इजा – बीज – तिजा, काशी – रामेश्वर – पुरी झाल्या,
आता द्वारका झाली की चौकोन पूर्ण होणार !

सारे कांही सुनियोजित, व त्याची पुर्तता ही तीन्ही वेळा पूर्व नियोजना प्रमाणे यथासंग व व्यवस्थित झाली. आठ – नऊशे भक्तांच्या व्यवस्थेचे एव्हढे टेंशन असतांनाही समुद्रस्नान – श्राद्धविधी – आराधना –भजन – पूजनादि सर्व धार्मिक विधी यथासंग संपन्न करणे, हे श्रद्धा आणि संयमाचा परिपूर्ण संगम असणारे श्री ज्ञानराज प्रभूच करू जाणे. त्यांचा हा गूण थोडा जरी आम्हीं अंमलात आणला तरी जीवनात आम्ही खूप कांही मिळविले , असे होईल.
श्री सिद्धराज प्रभूंची पुण्यतिथी – आराधना – प्रवास व खानपान वगैरेंची व्यवस्था दरवेळी चढत्या क्रमाने उत्तमोत्तम झाली. पुरीला तर जणू कांही केवळ खवैये म्हणून उदर भरणम यासाठीच आम्ही गेलो होतो की काय अशी शंका येते.कुठे कांही गोंधळ – चोऱ्या – भांडण – गैर व्यवस्था – चिडचिड वगैरे कांही कांहीही नाही. यात आणखी एक गोष्ट प्रकर्षाने जाणवली ती ही की “आम्ही श्रीजी बरोबर समुद्र स्नानाला गेले वेळी , श्रीजी तिथे येणे अगोदर थोडावेळ समुद्रात डुबक्या घेत होतो , तेंव्हा समुद्राच्या लाटा फारशा मोठ्या नव्हत्या , म्हणजे सुसह्य होत्या , पण जेंव्हा प्रत्यक्षात श्रीजी – श्री प्रभूंच्या पादुका हाती घेऊन, स्वतः स्नान करून ,पादुकांना समुद्र जलाने अभिषेक करीत होते-पादुकांसह समुद्रात डुबकी घेत होते तेंव्हा समुद्राच्या खूपच खूप मोठ्या लाटा उचंबळून येऊन श्रीजी व श्री पादुकाना आनंदतीशयाने जलाभिषेक करीत होत्या.
ओहोटीचे (पोर्णिमे नंतरचे ) दिवस असूनही जणूकाही समुद्रालाही प्रभू दर्शनाची ओढ लागून भरती आली होती. मित्रहो ! यात अतिशयोक्ती मुळीच नाही , श्रीजी पासून काही अंतरावर आधी निर्वेध पणे डुंबणारे आमच्या सारखे यावेळी 2-3 वेळा सरळ मागे ढकलल्या गेलो किंवा काहीजण चक्क आडवे पडलो ही वस्तुस्थिती आहे. जसें घुसळलेल्या ताकातून लोण्याचा गोळा अलगद काढावा तसे आरामात गेलो आणि सरळ परत आलो.
माणिक नगरला परत आल्यावर वेशीत असंख्य सुवासिनींनी “श्रीजीना” ओवाळले. स्थानिक नागरिकांकडून वेशीवरील नागरखान्यातून श्रीजी व त्यांचे सोबत सर्व भक्तांवर पुष्पवृष्टी होत होती , तर मीच का मागे राहू म्हणून “वरूणराजयानेही पावसाचा हलकासा शिडकावा केला”. हा कांही नुसताच योगा योग म्हणता येणार नाही तर “ही श्री प्रभूंच्या समाधानाची रोख पावतीच म्हणावी लागेल.”
आमचे वैयक्तिक खाजगी बाबतीत म्हणावे तर धूसर शक्यता असलेली 1-2 कामं त्याचवेळी पूर्णत्वास गेल्याची सुवार्ता तेंव्हाच कळाली. ही श्री प्रभूंचीच कृपा म्हणावी.
इतर सामाजिक -राष्ट्रीय विचारांच्या दृष्टीने विचार केला तर म्हणावे लागेल की ,स्वछता,नियमांचे पालन,निस्वार्थीपणा, धर्मा बाबत व्यापक दृष्टी याबाबत दक्षिण भारता पेक्षा उत्तर – पश्चिम व पूर्व भारत खूपच मागे आहे, असे दिसून येते. असो.
by Pranil Sawe | Oct 31, 2022 | Uncategorized

नुकताच श्री माणिकप्रभु संस्थानातर्फे आयोजित श्री जगन्नाथ पुरी यात्रा, रविवार दिनांक ९ ऑक्टोबर ते शनिवार दिनांक १५ ऑक्टोबर दरम्यान माणिकनगर-जगन्नाथ पुरी-माणिकनगर, अशी सफळ संपूर्ण झाली. अलौकिक, अद्भुत, अद्वितीय, अविस्मरणीय अशा या यात्रेचे वर्णन करण्यास कदाचित शब्दही अपुरे पडतील. ह्या यात्रेदरम्यान श्री माणिकप्रभु गादीचे विद्यमान पीठाधिश, श्री ज्ञानराज माणिकप्रभु (श्रीजी) ह्यांना जवळून पाहता आले आणि ते मला ज्या प्रकारे दिसले, भावले ते शब्दबद्ध करण्याचा हा अल्प प्रयत्न आपण गोड मानून घ्याल, अशी आशा व्यक्त करतो.
गेल्या वर्षभरात श्रीजींची वेदांतातील गूढ सिद्धांत सामान्यजनांना व्यवहारातील सहज सोपी उदाहरणे देऊन, अत्यंत आत्मीयतेने, तळमळीने समजावून सांगणारा एक उत्तम वक्ता, जनसामान्यांच्या अनेक समस्या सोडवणारा, आपल्या संस्कृती आणि परंपरेबद्दल पराकोटीची श्रद्धा आणि जाज्वल्य अभिमान असणारा अलौकिक सिद्धपुरुष, संगीत आणि साहित्याचा व्यासंगी, अनेक भाषांवर प्रभुत्व असणारा, इतर धर्म आणि संस्कृतीचीही व्यापक जाणीव असणारा श्री सकलमत संप्रदायाचा एक अधिकारी पुरुष म्हणून श्रीजींबद्दल माझ्या मनात असलेला आदर दर दिवसागणिक दुणावत होता. ह्याच वर्षीच्या वेदांत सप्ताहामध्ये झालेल्या माणिक क्विझ स्पर्धेदरम्यान श्री संस्थानातर्फे आयोजित मागील श्री काशी आणि श्री रामेश्वरयात्रेमधील संदर्भ देऊन काही प्रश्न विचारण्यात आले होते. त्याच वेळी मनात योजले होते की, भविष्यात जेव्हा कधी श्री प्रभुसंस्थानातर्फे अशा यात्रेचे आयोजन टमकेले जाईल, तेव्हा आपण सहभागी होण्याचा प्रयत्न करुया. भक्तवत्सल, सार्वभौम श्रीप्रभुच्या असीम कृपेने हा योग लगेचच जुळून यायचा होता म्हणूनच की काय, एप्रिल महिन्यातच श्री जगन्नाथ पुरी यात्रेची घोषणा झाली. क्षणाचाही विलंब न लावता, मी माझे नाव या यात्रेसाठी नोंदवले. श्री क्षेत्र माणिकनगर-पुरी-माणिक नगर अशा प्रवासासाठी मी नाव नोंदणी केली. जायचे यायचे तिकीट, पुरी येथील निवासाची व्यवस्था आणि पुरी येथील कार्यक्रमाचे सविस्तर स्वरूप याची अगदी पद्धतशीर माहिती देणारे पत्रक दोन महिने आधीच श्री प्रभुसंस्थानातर्फे हातामध्ये पडले.

नियोजित यात्रेसाठी दिनांक ०७ ऑक्टोबर, शुक्रवारी रात्री ठाण्याहून माणिकनगरला निघालो. माझ्या बरोबर पितृतुल्य श्री. व सौ. चंद्रकांत देशपांडे काका, व फोटोग्राफर श्री. अभिजीत देव होते. सकाळी यथावकाश माणिकनगरला पोहोचलो. माणिक नगरात रविवारी सुरु होणाऱ्या जगन्नाथ पुरी यात्रेसाठी एकच लगबग उडाली होती. एकेक प्रभुभक्त श्रीप्रभु मंदिरात दाखल होत होता. सर्वांना आयकार्ड, टोपी व खाण्यापिण्याचे किट श्री प्रभु संस्थानातर्फे वितरित करण्यात येत होते. अत्यंत नियोजन पद्धतीने होत असलेल्या या सर्व प्रक्रियेमध्ये श्रीजी मात्र आपल्या नित्य पूजेमध्ये व्यस्त होते. आज संध्याकाळी श्रीजींचे पौर्णिमेचे प्रवचन होते. दसऱ्याच्या दिवशी श्रीजींच्या संकल्पनेतून साकारलेल्या व त्यांच्याच शुभ हस्ते प्रभुभक्तांसाठी खुल्या केलेल्या सचित्र माणिक प्रभु चरित्रामृत परिक्रमेची अद्भुत यात्रा करून भारावलो होतो. श्रीजींच्या ठाई असलेली सौंदर्यदृष्टी आपल्याला कायापालट झालेल्या श्रीप्रभु मंदिर परिसरात जागोजागी दिसून येते.
पौर्णिमेच्या पूर्वसंध्येला झालेल्या पौर्णिमा प्रवचनासाठी श्रीजींनी देवाला नवस बोलावा की बोलू नये, यावर समस्त प्रभुभक्तांचे सुंदर प्रबोधन केले. आम्ही जरी शारीरिकदृष्ट्या, भौतिकदृष्ट्या पुरीयात्रेसाठी तयार झालेलो असलो, तरी जगन्नाथ यात्रेला जाताना श्रीजगन्नाथासमोर नेमके काय मागावे व काय मागू नये, ह्याची मानसिक तयारीही श्रीजींनी ह्या प्रवचनाच्या निमित्ताने आमच्याकडून करवून घेतली. यातून श्रीजींची भक्तांच्या आध्यात्मिक उन्नतीची तळमळच आपल्याला दिसून येते. तसेच नवसाच्या रुपात जे मागणं असते, त्याचे स्वरूप स्पष्ट करून जगन्नाथाकडे काय मागावं? याचा निर्णय सर्व प्रभुभक्तांवर सोडतानाच जगन्नाथाकडे योग्य ते मागण्याची सद्बुद्धी श्रीप्रभु आपल्याला देवो आणि सर्वांचे कल्याण होवो, असा शुभाशीर्वाद दिला. गुरु हा केवळ आपल्या भक्तांना मार्ग दाखवण्याचे काम करतो आणि भक्तासाठी काय योग्य, काय अयोग्य याचा निर्णय तो केवळ आणि केवळ भक्तांवर सोपवतो. ह्यातून आपल्याला श्रीजींमधील एका आदर्श गुरुचेच दर्शन होते.

दुसऱ्या दिवशी रविवारी, सकाळी सात सव्वा सातच्या सुमारास जगन्नाथ पुरी यात्रेसाठी जमलेल्या प्रभुभक्तांनी श्रीप्रभु मंदिराचे पटांगण फुलून गेले होते. सर्वांना चहा नाश्ता देण्यात येत होता. सकाळी आठच्या सुमारास नौबत झडली आणि भक्तकार्यकल्पद्रुमच्या जयघोषात, वाद्यांच्या तुंबळ निनादात श्रीजींची स्वारी भक्तांसहित श्री माणिकप्रभुंच्या संजीवन समाधीसमोर आली. श्रीजींनी श्रीप्रभुला यात्रेच्या यशस्वीतेसाठी निवेदन दिले. चैतन्याचं सगुण स्वरूप समाधीतल्या निर्गुण स्वरूपाला आवाहन करत होतं. एक क्षण श्रीजींची श्रीप्रभु समाधीशी नजरानजर झाली आणि श्रीजींच्या मुखकमलावर आश्वासक स्मितहास्य उमटले. जणू संपूर्ण यात्रेचा भार ह्याच चैतन्यानेच पेलायचा होता. हा एक क्षण अंगावर रोमांच उभे करून गेला. श्री माणिकप्रभुंच्या ब्रीदावलीतील निरालंब हा शब्द डोळ्यांसमोर तरळला. आता श्रीजी आमचे आधार झाले होते. यानंतर श्रीमाणिकप्रभुंची आरती झाली. सर्वांनी श्रीप्रभुसमाधीचे दर्शन घेऊन लगेचच बाहेर उभे असलेल्या बसमध्ये चढण्यास सुरुवात केली.

जगन्नाथ पुरीला जाण्यासाठी माणिक नगरहून सुमारे साडेचारशे जण होते. एकंदर दोन रेल्वेगाड्यांमध्ये सर्व प्रभुभक्तांची जाणयेण्याची सोय केली होती. त्यानुसार पहिल्या गाडीच्या प्रवाशांसाठी तीन बसेसची व्यवस्था होती. श्री प्रभुमंदिरातील आरती नंतर श्रीजी लगेच बस लावलेल्या ठिकाणी हजर होते. त्यांना बसायला खुर्ची ठेवली होती पण एकही क्षण खुर्चीत न बसता लवकरात लवकर बस भक्तांनी भरून मार्गस्थ कशी होईल याची जातीने दखल श्रीजी घेत होते. त्यांच्या केवळ उपस्थितीमुळेच समस्त प्रभुभक्तांमध्ये स्फुरण चढले होते. श्रीजींनी नारळ वाढवल्यावर पहिली बस जेव्हा रवाना झाली, तेव्हा श्री माणिक प्रभुंचा जयघोष झाला. त्यानंतर पुढच्या दहा-पंधरा मिनिटात पहिल्या गाडीच्या तिन्ही बसेस रवाना झाल्या. सकाळी नऊ वाजताच्या सुमारासही ऊन मी म्हणत होते. अशाही परिस्थितीत अंगावरील घाम पुसत श्रीजी दुसऱ्या रेल्वेगाडीच्या दहा बसेसची व्यवस्था लावण्यात गुंतले होते. सकाळी दहाच्या सुमारास सर्व बस माणिकनगरहून सिकंदराबादला रवाना झाल्या होत्या. सर्व प्रभुक्तांप्रमाणेच श्रीजींचा सर्व परिवारसुद्धा कर्नाटक राज्य परिवहन महामंडळाच्या बसमधूनच सिकंदराबादसाठी रवाना झाला होता. ह्या आणि अशा अनेक छोट्या छोट्या गोष्टींतून श्रीजींचं साधेपण ठळकपणे जाणवते.

सिकंदराबादला जाताना वाटेत सदाशिव पेठजवळ सर्व प्रभुभक्तांच्या जेवणाची व्यवस्था श्री माणिक पब्लिक स्कूलतर्फे करण्यात आली होती. पुरीयात्रेसाठी सर्व कार्यकर्त्यांचा एक व्हाट्सॲप समूह बनवण्यात आला होता. मलाही त्या समूहात समाविष्ट करण्यात आले. सिकंदराबादला जाणारी पहिली बस आणि शेवटची बस ह्यात जरी दीड दोन तासाचे अंतर असले तरी श्रीजी व्हाट्सॲप च्या माध्यमातून सर्वांचं जेवण झालं की नाही, सर्वजण स्टेशनवर पोहोचले की नाही, कुठली बस कुठे आहे, याची अगदी जातीने चौकशी करत होते. घार जरी आकाशी उडत असली तरी, तिचे चित्त मात्र पिलांपाशीच असते. दोन अडीचच्या सुमारास सर्व बसेस सिकंदराबाद स्टेशनवर पोहोचल्या. आधी फलकनुमा एक्सप्रेस प्लॅटफॉर्म क्रमांक आठ वरून चारच्या सुमारास रवाना झाली. तेथेही श्रीजींनी स्वतः जाऊन सर्व प्रभुभक्त गाडीत व्यवस्थित चढले की नाही याची व्यक्तीश: खात्री करून घेत होते. गाडी सुरू झाल्यावर श्रीजींनी सगळ्यांना हात हलवून जणू काही निश्चित जा, मी तुमच्या पाठीशी आहे, अशाप्रकारे आश्वस्त केले. त्यानंतर लगेचच प्लॅटफॉर्म क्रमांक एकवर येऊन सर्व प्रभू भक्तांना एक-एक करून भेटू लागले. प्रभुभक्तांना देण्यात येणाऱ्या यात्रा किटचा आढावा, हैदराबादहून येणाऱ्या प्रभुभक्तांची यादी पाहून कोण आले, कोण नाही, याची चौकशी अविरतपणे करत होते. संध्याकाळी पाचच्या सुमारास आम्ही सर्व विशाखा एक्सप्रेसने जगन्नाथ पुरीसाठी रवाना झालो.
योगायोगाने श्रीजी बाजूच्या डब्यात, आणि श्रीजींचा परिवार माझ्या बाजूच्या कंपार्टमेंटमध्ये होता. प्रत्येक डब्यासाठी एक लीडर नेमून दिला होता. अत्यंत नियोजनबद्ध पद्धतीने प्रत्येक जण आपल्या डब्याची स्थिती सांगत होता. श्रीजी ही सर्व प्रभुभक्तांप्रमाणे आमच्याबरोबर रेल्वेने प्रवास करत होते. यातही त्यांचा साधेपणा व सर्वांना समान लेखण्याचा अंगीभूत गुण दिसून येतो. रात्रीच्या जेवणाची, सकाळच्या नाश्त्याची व दुपारच्या जेवणाची व त्याचबरोबर पाण्याची सोय त्या त्या भागातील प्रभुभक्तांनी अगदी आत्मीयतेने व नियोजनबद्ध पद्धतीने केली. भरपेट भोजन होईल इतकं किंबहुना त्याहीपेक्षा थोडसं जास्तच अन्न जेवण आणि नाश्त्याचे वेळीस पुरवलं गेलं. येथेही श्रीजींची भक्तांशी जुळलेली नाळच अधोरेखित होत होती. सिकंदराबादच्या थोड्याशा पुढे पाऊस सुरू झाला आणि जवळजवळ तो शेवटचे स्टेशन, खुर्दा येथपर्यंत होता. प्रवासादरम्यान पुढचे तीन दिवस पुरीला पावसाचा अंदाज वर्तवण्यात आला होता. पण श्रीप्रभुकृपेने जगन्नाथ पुरी येथील वास्तव्यात एकही दिवस पावसाने हजेरी लावली नाही. पुरीहून निघण्याच्या दिवशी मात्र सकाळी अगदी पाचच मिनिटं हलकीशी सर येऊन गेली. जणू काही निसर्गाचे डोळेही प्रभुभक्तांच्या विरहामुळे पाणावले होते. श्रीजींनी केवळ आपल्या संकल्पाचा जोरावर पावसाचा त्रास कुठल्याही प्रभुभक्ताला होऊ दिला नाही. अशावेळीस श्रीजींमध्ये मला गोवर्धन पर्वत स्वतःच्या करंगळीवर उचलून घेऊन गोपालांचे पावसापासून रक्षण करणारा श्रीकृष्णच जाणवला. सिकंदराबाद ते खुर्दापर्यंतच्या प्रवासादरम्यान श्रीजींनी एसीचा पहिला डबा ते स्लीपर कोचचा अकरावा डबा असे सुमारे 21 डब्यांचे अंतर दोनदा पार केले. रात्री जेवण झाल्यावर सर्व प्रभुभक्तांना भेटण्यासाठी व सकाळी नाश्ता झाल्यावर पुन्हा एकदा सर्व प्रभुभक्तांना भेटण्यासाठी श्रीजी गाडीतून फिरत होते. त्या त्या डब्यातील प्रभुभक्तांजवळ जाऊन व्यवस्था कशी आहे, जेवण झाले की नाही, अन्न पुरेसं होतं की नाही, काही हवं नको याची आणि एकंदर जिव्हाळ्याची विचारपूस जवळपास प्रत्येक प्रभुभक्ताकडे करत होते. सकाळी आठच्या सुमारास श्रीप्रभु मंदिरात आरतीला हजर असणारे श्रीजी, रात्रीच्या दहा वाजताही तितक्याच उत्साहात वावरत होते. श्रीप्रभुच्या चैतन्याचा सुंदर अविष्कार श्रीजींच्या देहबोलीतून अनुभवता येत होता.

दुसऱ्या दिवशी संध्याकाळी साधारणत: चारच्या सुमारास आम्ही खुर्द्याला पोहोचलो. तेथेही सर्व प्रभुभक्तांना नियोजित भक्तनिवासाच्या बसेसमध्ये बसवून देण्यात श्रीजी आघाडीवर होते. प्रभुभक्तांची आणि त्यांच्या सामानाच्या वाहतुकीची सुंदर व्यवस्था श्री प्रभुसंस्थान तर्फे करण्यात आली होती. संध्याकाळी सातच्या सुमारास आम्ही सर्व जगन्नाथपुरी येथील भक्तनिवासात पोहोचलो. रात्री साडेआठच्या सुमारास भोजनाच्यावेळीह रेल्वेशिवाय विमानमार्गानेही येणाऱ्या सर्व प्रभुभक्तांची मांदियाळी आता जगन्नाथ पुरीत जमली होती. हा आकडा एकंदर हजारच्या जवळपास होता. अशावेळी आमचे कुटुंबप्रमुख श्रीजी, सुहास्य वदनाने सर्व प्रभुभक्तांना सामोरे जात होते. रात्री अकराच्या सुमारास पुरुषोत्तम भक्तनिवासावर मुंबईचे काही भक्त खाली बसले होते. श्रीजी येताच, श्रीजींनी कसे चाललाय म्हणून सर्वांना विचारणा केली, त्यावेळी आम्ही तुमचीच वाट पाहत होतो, असे काही भक्त म्हणाले. श्रीजींनी अविलंब तेथेच बसून सर्वांचा नमस्कार स्वीकार केला. गुरु हा भक्तांमध्येच नित्य रमतो, हे आज पुन्हा अनुभवले.
पुरी यात्रेतील दुसरा दिवस प्रभुभक्तांना ऐच्छिक पर्यटनासाठी राखीव ठेवला होता. आम्ही काहीजण रामचंडी पीठ आणि कोणार्कचे सूर्य मंदिर पाहायला गेलो. सूर्य मंदिर परिसरात श्रीजीही परिवारासह पर्यटनाचा आनंद घेत होते. तेथे त्यांची कुटुंबवत्सलता पाहायला मिळाली. संध्याकाळी निलाद्री भक्तनिवासावर भजनाचा आणि श्रीजींच्या प्रवचनाचा कार्यक्रम होता. दिवसभराच्या पर्यटनानंतरही श्रीजी ज्ञानदानाच्या कार्यासाठी अगदी उत्साहात हजर होते. श्रीप्रभु भजनानंतर प्रवचनाच्या सुरुवातीलाच श्रीजींनी श्री मार्तंड माणिकप्रभुंच्या “अरे जा श्रीप्रभु रिझवा…” ह्या पदाचा आधार घेऊन श्रीप्रभुला जर भजायचे असेल तर ते माणिकनगरातही होऊ शकलं असतं. मग इतक्या लांब जगन्नाथ पुरीला यायची काय गरज? ही संकल्पना स्पष्ट करतानाच, श्रीजी म्हणतात की, श्रीप्रभुला सर्वत्र पाहण्याचा जो भाव आहे, त्या धारणेला पुष्टी देण्यासाठीच आपण येथे आलो आहोत. वैशिष्ट्य म्हणजे सभागृहामध्ये जगन्नाथ पुरी यात्रेचा जो फलक लावला होता त्यावर श्री माणिकप्रभुंच्या चित्र ऐवजी बलराम सुभद्रेसहित श्रीकृष्णाचा फोटो होता. ही सूक्ष्म एकरूपता भक्तांनीही आपल्या हृदयी ठासवावी, ही सुंदर संकल्पना श्रीजींची होती. परमात्मा वस्तू ही अत्यंत सूक्ष्म आहे आणि त्याला जाण्यासाठी काही साधनांची आवश्यकता आहे. श्रीमद्भगवद्गीतेमध्ये ही वीस साधने तेराव्या अध्यायाच्या आठ ते बारा ह्या पाच श्लोकांमध्ये वर्णन केली आहेत. आणि ह्याच वीस गुणांचा सविस्तर ऊहापोह व्यवहारातील अनेक उदाहरणे सांगून, पुराणातील अनेक कथांचा दाखला देऊन, श्रुतीतील अनेक वाक्यांचा आधार घेऊन श्रीजींनी आपल्या पुढील तीन दिवसातील प्रवचनांमध्ये केला. गेल्या वर्षीच्या अधिक मासामध्ये हाच विषय श्रीजींनी घेतला होता. पण पुन्हा त्याची उजळणी जनसामान्यास व्हावी, त्यांची धारणा बळकट व्हावी आणि आत्मस्वरूपाचे ज्ञान प्रत्येक जीवात्म्यास व्हावे, हा उदार हेतू श्रीजींच्या प्रवचनातून जाणवला. उजळणी केल्यामुळे संकल्पना स्पष्ट होऊन, त्या अंतरात खोलवर रुजून बळकट होतात ही एका हाडाच्या शिक्षकाची कार्यपद्धती श्रीजींच्या प्रवचनादरम्यान जाणवली. तसेच ह्या वीस साधनांच्या मूळ विषयाला हात घालण्याआधी श्रीजींनी जवळपास सतरा अठरा मिनिटे सर्व प्रभुभक्तांना मानसिकदृष्ट्या तयार केले. श्रीजींच्या प्रत्येक प्रवचन हे सुरुवातीला उपक्रम (start), सामंजस्य (connection) आणि शेवटी उपसंहार (conclusion) ह्याचा एक सर्वांगसुंदर नमुना असतं, जसं गीतेच्या प्रत्येक अध्यायामध्ये आपल्याला हे सूत्र आढळून येतं. जनसामान्यांना गीता समजवतानाच, श्रीजी भगवद्गीता आपल्या जीवनात, प्रत्येक कृतीत अक्षरशः जगत असतात. साधारणत: दीड तासाच्या प्रवचनानंतर श्रीजी पुन्हा भक्तांना भेटण्यासाठी प्रांगणात हजर होते. मला अजूनही आठवते रात्री अकराच्या सुमारास ते भक्तनिवासाकडे रवाना झाले होते.

यात्रेच्या तिसऱ्या दिवशी श्री सिद्धराज माणिकप्रभुंची पुण्यतिथी होती. सकाळी साडेसात वाजता स्वर्ग बीचवर माणिक प्रभुंच्या पादुकांना समुद्र स्नानाची पर्वणी होती. वेदशास्त्र संपन्न ब्रह्मवृंदांच्या उपस्थितीत, वेदोक्त मंत्रांच्या जयघोषात श्रीजींनी प्रभु पादुकांना मनोभावे स्नान घातले. माणिक नगरी जशी षोडशोपचार पूजा व श्राद्धविधी होतात, अगदी तसेच विधी, त्याच थाटात जगन्नाथ पुरीतही झाले. देव्हाऱ्यासह नित्य पूजेतील देवांनाही जगन्नाथ पुरीची यात्रा घडली होती. सकाळी साडेअकरा वाजता नीलाद्री भक्त निवासाच्या ठिकाणी श्री माणिक प्रभू पादुकांची महापूजा संपन्न झाली त्यानंतर दुपारी दोन वाजता श्री सिद्धराज माणिक प्रभूंच्या पुण्यतिथीचा कार्यक्रम शास्त्रोक्त पद्धतीने संपन्न झाला. त्यानंतर अल्पोपहार होऊन पुन्हा भजन आणि प्रवचनाचा कार्यक्रम पार पडला. समुद्र स्नानापासून, पुण्यतिथीचे श्राद्ध कर्म व त्यानंतरचे भजन, प्रवचन यामध्ये श्रीजींचा उत्साह तरुणालाही लाजवणारा होता. प्रवचनादरम्यान श्रीजींची विषयावरील पकड, वेदांतासारखा गूढ विषय जनसामान्यांना समजेल, पचेल, रुचेल अशा पद्धतीने सादर करण्यातील हातोटी हे गुण केवळ एकमेवाद्वितीयच आहेत. आजही सुमारे दोन तासाच्या प्रवचनानंतर श्रीजी पुन्हा सर्व प्रभू भक्तांना भेटण्यासाठी सुहास्य वदनाने खाली प्रांगणात येऊन बसले होते.
पुढच्या दिवशी सकाळी अकरा वाजता पुन्हा श्रीप्रभुंच्या पादुकांची महापूजा झाली. त्यानंतर दीड वाजल्यापासून साधारणतः सहा वाजेपर्यंत श्री सिद्धराज माणिक प्रभुंच्या महासमाराधनेचा सोहळा अत्यंत भक्तीपूर्ण वातावरणात संपन्न झाला. त्यानंतर भजन आणि श्रीजींचे प्रवचन सुरू झाले. आज चिन्मय मिशनमधून अधिकारी सत्पुरुष, तसेच श्री कृपालू महाराजांच्या आश्रमातील मुख्य श्रीजींच्या प्रवचनासाठी उपस्थित होते. जगन्नाथ पुरी मधील काही यशस्वी उद्योजकांनीही श्रीजींच्या प्रवचनाला आज उपस्थिती लावली होती. यातून श्रीजींचा अध्यात्मिक क्षेत्रातील अधिकार लक्षात येतो. सर्वचनानंतर श्रीजींनी सर्वांना शाल व श्रीफळ देऊन त्यांचा सत्कार केला आणि “अतिथी देवो भव” ह्या उक्तीला अधोरेखित केले. प्रवचनांच्या ह्या गडबडीतही त्यांचे लक्ष तीनही दिवस खाली चाललेल्या भोजन व्यवस्थेकडे अगदी जातीने होते. एखाद्या गोष्टीचा ध्यास घेतला की ती गोष्ट पूर्ण क्षमतेने तडीस नेण्याची दुर्दम्य इच्छाशक्तीही श्रीजींच्या चौफैर असलेल्या नजरेतून दिसून येते.
यात्रेच्या शेवटच्या दिवशी श्रीजी उपम्याची डिश हातात घेऊन सकाळी सर्व भक्तांसमवेत भक्तनिवसाच्या प्रांगणात नाश्ता करत होते. त्यानंतर त्यांनी तासभर खुर्चीत बसून सर्व प्रभू भक्तांना आपल्या सोबत फोटो काढून दिले. ह्यातून त्यांची भक्तांमध्ये रमण्याची वृत्तीच दिसून येते. परतीच्या प्रवासामध्ये ही येताना सारखीच बारीक विचारपूस सुरूच राहिली. परतीच्या प्रवासात शेवटी गुलबर्गा उतरल्यावर त्यांचे ढोल ताशांच्या गजरात, हारतुरे घालून ग्रामवासीयनतर्फे जंगी स्वागत रेल्वे स्टेशनवरच झाले. गुलबर्ग्यापासून हुमनाबादपर्यंतचा प्रवास श्रीजींनी शटल ट्रेनने सेकंड क्लासमधूनच केला. पाहिजे असते तर त्यांनी गुलबर्ग्याहून त्यांच्या खाजगी गाडीने प्रवास करून केला असता पण त्यांनी ते कटाक्षाने टाळले. माणिक नगरला पोहोचल्यावर माणिक नगरवासीयांनी पुन्हा थाटामाटात स्वागत करून श्रीजींच्या संकल्प सिद्धीला मानाचा मुजरा केला. ह्या आणि अशा अनेक छोट्या छोट्या गोष्टी, त्यांची प्रभुभक्तांशी जुळलेल्या नात्यांची वीण घट्ट करतात. श्री माणिकप्रभु संस्थानाशी जोडल्या गेलेल्या भक्तांच्या अनेक पिढ्या त्याच आत्मियतेने, त्याच विश्वासाने आजही का टिकून आहेत, याचे उत्तर सांगायला कुण्या पंडिताची आवश्यकता नाही.
उच्च विद्याविभूषित, अनेक पुरस्कारांनी सन्मानित, प्रख्यात साहित्यिक, संस्कृतसहित अनेक भाषांवर प्रभुत्व, वेदांत विषयावर विशेष प्राविण्य, श्री माणिक प्रभु गादीचे सहावे आणि विद्यमान पीठाधीश असलेले श्री ज्ञानराज माणिक प्रभु उपाख्य श्रीजी हे तितक्याच सहजतेने जनसामान्यात मिसळतात, सर्वांना सहजतेने उपलब्ध असतात. साधी राहणी, कुठल्याही बडेजावाचा अभाव, सर्वांवर आईची माया व वडिलांचे छत्र धरण्याचा स्वभाव, सर्वांना आपलेसे करण्याची वृत्ती ह्यामुळे श्रीजी सर्वांनाच मनापासून आपले वाटतात, आधार वाटतात. श्रीजींबद्दल इतर भक्तांकडून ऐकलेले प्रत्यक्षात अनुभवताना अत्यंत धन्यता वाटली, अनेकदा डोळ्यांच्या कडा ओलावल्या. श्रीप्रभुच्या प्रेरणेने योजलेली ही जगन्नाथपुरी यात्रेची धुरा श्रीजींनी आपल्या खांद्यांवर समर्थपणे पेलली व यशस्वी करून दाखवली. ह्या संपूर्ण यात्रेदरम्यान कुणालाही, कसलाही त्रास झाल्याचे आजपर्यंत तरी ऐकले नाही, हा केवळ योगायोग नव्हता तर ही प्रभुचैतन्याची प्रचिती होती. या यात्रेच्या यशस्वी संयोजनामध्ये श्रीजींप्रमाणेच श्रीजींचे बंधू श्री आनंदराज प्रभुजी, चिरंजीव श्री चैतन्यराज प्रभुजी, श्री प्रभु संस्थान आणि असंख्य कार्यकर्ते ह्यांच्या अथक परिश्रमाचाही सहयोग होता, त्याबद्दल सर्वांप्रती कृतज्ञता…
ह्या जीवाचे अहोभाग्य की ह्या यात्रेदरम्यान श्रीजींना जवळून पाहता आले, त्यांचा हृदय सहवास ह्या यात्रेदरम्यान आम्हा सर्वांनाच लाभला. संपूर्ण यात्रेदरम्यान सतत पूर्ण गुरुकृपेची नजर आणि मायेची पाखर सर्वच प्रभुभक्तांवर धरणाऱ्या श्रीजीरुपी ह्या आधारवडाप्रती कृतज्ञता म्हणून ही शब्दसुमने अनुग्रहभावे श्रीजींच्या परममंगल चरणी मनोभावे अर्पण..
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