श्रीजगन्नापुरी यात्रा

चैत्र शुद्ध प्रतिपदा के दिन श्रीजी ने संकल्प किया, कि आश्‍विनमास में ब्रह्मलीन श्री सद्गुरु सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज की आराधना जगन्नाथपुरी धाम में संपन्न की जाएगी। कहते हैं, कि संकल्प में महान् शक्ति होती है। उस संकल्प की परिपूर्ति भले ही ५-६ महीनों के बाद होने वाली थी परंतु यह संकल्प स्वयं श्रीजी का होने के कारण आयोजिन की यशस्विता उसी दिन सुनिश्‍चित हो गई थी। भक्तजनों को सूचित किया गया, कि वे इस यात्रा में सम्मिलित हो सकते हैं। जून तक संस्थान के कार्यालय में करीब-करीब ८०० यात्रियों के रेजिस्ट्रेशन हो चुके थे। ८०० से अधिक भक्तजनों के इतने विशाल समूह को यात्रा पर ले जाना एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य था। तदनुसार श्रीजी के समर्थ नेतृत्व में यात्रा की तैयारियाँ आरंभ हुईं। कार्यक्रम तथा यात्रियों की व्यवस्था के संदर्भ में कईं बार कार्यकर्ताओं की बैठकें हुईं और गहन विचार-विमर्श के बाद एक सुनियोजित योजना बनाई गई और तदनुसार कार्यकर्ताओं को उनकी जिम्मेदारियाँ सौंप दी गईं। संस्थान के सभी कार्यकर्ता संपूर्ण उत्साह के साथ तैयारियों में जुट गए।

८ अक्तूबर की शाम को माणिक पौर्णिमा पर्व का आयोजन हुआ। जगन्नाथ पुरी की यात्रा में भक्तजनों का मूल उद्देश्य क्या होना चाहिए इस पर चर्चा करते हुए श्रीजी ने अत्यंत बोधप्रद प्रवचन किया। प्रवचन के अंतर्गत अनन्य शरणागति के विषय पर बात करते हुए श्रीजी, मानो इसी बात का संकेत कर रहे थे कि जब हम भगवान्‌ जगन्नाथ की शरण में जा रहे हैं तो हमारा भाव अनन्य शरणागति का होना चाहिए क्योंकि केवल इसी भाव से भक्त का उद्धार होता है। श्रीजी के प्रवचन के पश्‍चात् सभी यात्रियों को प्रवास तथा कार्यक्रमों से संबंधित महत्वपूर्ण सूचनाओं से अवगत कराया गया।

९ तारीख की सुबह श्रीजी ने श्रीप्रभु की आरती संपन्न की और यहीं से जगन्नाथ पुरी की यात्रा का श्रीगणेश हुआ। ‘‘श्री माणिको जगन्नाथः सर्वतः पातु मां सदा’’ हे प्रभु आप जगन्नाथ हैं अस्तु आप ही सदा सर्वदा सर्वत्र हमारी रक्षा करें तथा हमारे योगक्षेम का वहन कर इस यात्रा को सफल करें, ऐसी प्रार्थना करते हुए भक्तजनों ने श्रीप्रभु को नमस्कार किया। हैदराबाद की ओर निकलने वाली पहली बस के सामने नारियल फोड़कर बस को रवाना किया गया। महाद्वार के प्रांगण से सभी यात्रियों ने बस से सिकंदराबाद रेल्वे स्टेशन की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में सदाशिवपेठ के अय्यप्पा स्वामी देवालय में भोजन ग्रहण कर सब लोग स्टेशन पर पहुँचे। पूर्व तैयारियों के लिए संस्थान के कर्मचारियों की एक मंडली ट्रकों में सामान लादकर सड़क मार्ग से पुरी के लिए निकल चुकी थी।

रेल्वे स्टेशन के प्लेटफार्म पर जिधर देखो उधर केसरी रंग की टोपीयाँ पहने प्रभुभक्त ही दिखाई दे रहे थे। प्रभुभक्तों की उपस्थिति के कारण प्रायः कोलाहल से भरे हुए उस परिसर में एक विलक्षण प्रसन्नता छाई हुई थी। जहाँ एक ओर सभी यात्रीगण ट्रेन की प्रतीक्षा में आराम से बैठे हुए थे वहीं दूसरी ओर कार्यकर्ताओं की भाग-दौड़ लगातार जारी थी। स्वयं श्रीजी भी यात्रियों के बीच जाकर क्षेम-कुशल देख रहे थे। शाम के ४ बजे माणिकप्रभु महाराज की जय के जयघोष के साथ रेल्वे का प्रवास शुरू हुआ। ट्रेन की १४-१५ बोगियाँ प्रभुभक्तों से ही भरी हुई थीं। जैसे-जैसे जगन्नाथ स्वामी और भक्तजनों के बीच की दूरी कम हो रही थी वैसे-वैसे भक्तजनों का उत्साह और श्रीदर्शन की आतुरता बढ़ती जा रही थी। रेलगाड़ी की बोगियाँ भजन की धुनों से गूंज रही थी। मृदंग और तबले की ताल के साथ तेज़ रफ्तार से दौड़ रही रेलगाड़ी के पहियों की खडल-खडल की आवाज़ अत्यंत आह्लादक थी।

ए वन से एस टेन तक सभी बोगियों में छोटी-छोटी मंडलियां बनाकर भक्तजन प्रभु के नामस्मरण में रम गए थे। भजन और संगीत के माहौल में इतना लंबा रास्ता कैसे कट गया इसका किसी को भान नहीं रहा। भजन में मग्न भक्तजनों को देखकर महाराजश्री की एक रचना का स्मरण होता है, जहॉं वे कहते हैं ‘‘सद्गुरु चरणी ठेउनिया भार चालवी संसार तोची निर्भय’’ जो भक्त अपनी सांसारिक चिंताओं को गुरुचरणों में अर्पित करके भजन के रंग में दंग हो जाता है वही मृत्यु के भय से मुक्ति पाकर निर्भय बन जाता है।

रेलयात्रा के दौरान अलग-अलग स्टेशनों पर भोजन तथा उपाहार की व्यवस्था उन-उन स्थानों के भक्तजनों ने अत्यंत निष्ठा एवं आत्मीयता से की थी। रेल यात्रा के दौरान संस्थान के कार्यकर्ताओं ने यात्रियों के खान-पान की व्यवस्था इतनी अद्भुतरीति से की थी, कि उनकी जितनी तारीफ की जाए कम है। किसी-किसी स्टेशन पर तो खाने के बक्से चढ़ाने के लिए केवल १ मिनट का ही समय होता था लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी हमारे कार्यकर्ता पलक झपकने तक पानी की बोतलों सहित ८०० यात्रियों के भोजन का सामान बोगियों में चढ़ाकर ट्रेन निकले की राह देखते थे। सभी यात्रियों को ठीक समय पर उनके-उनके स्थानों पर खाने के पार्सल वितरित करने का जो कार्य कार्यकर्ताओं ने किया उसे देखकर रेल्वे के पैंट्री वाले भी परेशान हो गए थे।

१० तारीख की शाम को खोर्धा रोड स्टेशन पर उतरकर सभी यात्री सड़क मार्ग से पुरी धाम की ओर निकले। गोधूलि की वेला में जय जगन्नाथ की जय जयकार के साथ ८०० यात्रियों ने श्रीपुरुषोत्तमक्षेत्र में प्रवेश किया। जगन्नाथस्स्वामी नयनपथगामी भवतु मे। द्वारका के प्रासाद के द्वार पर खड़े सुदामा अपने प्रिय सखा से मिलने के लिए जैसे व्याकुल हो गए थे ठीक वैसी ही अवस्था पुरी पहुँचने के बाद यात्रियों की हो गई थी। पहली बार श्रीमंदिर के उत्तुंग शिखर का दर्शन पाकर और नीलचक्र पर लहराते हुए ध्वज को देखकर हमें जिस धन्यता की अनुभूति हुई वह वर्णनातीत है। भगवान्‌ जगन्नाथ के दर्शन के लिए भक्तजन इतने अधीर थे कि कमरों में सामान रखकर स्नानादि संपन्न होते ही श्रीमंदिर की ओर भक्तजनों की होड़ लग गई। पुरी की सड़कों पर, वहाँ की गलियों में तथा मंदिर परिसर में प्रभुभक्त ऐसे घुल मिल गए थे जैसे अनेक वर्षों से उस स्थान से परिचित हों। पुरी नगर के नीलाद्रि भक्त निवास, नीलांचल भक्त निवास, गुंडीचा भक्त निवास तथा पुरुषोत्तम भक्त निवास के वातानुकूलित कमरों में भक्तजनों के आवास की व्यवस्था की गई थी। श्रीजी के मार्गदर्शन में यात्रियों के आवास की व्यवस्था अत्यंत सुनियोजितरीति से हुई थी।

११, १२ और १३ अक्तूबर – इन तीन दिनों की अवधि में भजन, प्रवचन तथा पूजा अर्चादि धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन नीलाद्रि भक्त निवास के सभाभवन में किया गया था। नित्य प्रातः विप्रमंडली की उपस्थिति में श्रीजी द्वारा श्रीप्रभु पादुकाओं की महापूजा संपन्न हुई। इस महापूजा में नित्यानुष्ठान के अंगभूत मधुमतीसहित श्रीदत्तात्रेयपूजन, श्रीचक्र का कुंकमार्चन तथा चैतन्यलिंग की रुद्राभिषेकयुक्त पूजा संपन्न होने के पश्‍चात् भक्तजन तीर्थ प्रसाद ग्रहण करते थे।

चार धामों में से पुरी का जो धाम है, वह भोजन के लिए प्रसिद्ध है। इस धाम में प्रभु के प्रसाद की महिमा असाधारण है। कहते हैं, कि भगवान् रामेश्‍वर में स्नान करते हैं, द्वारका में अलंकार धारण करते हैं, पुरी में भोजन और बदरीनाथ में विश्राम करते हैं। इसलिए पुरी धाम में यात्रियों ने प्रभु का प्रसाद ग्रहण करने के बाद जिस तृप्ति और समाधान का अनुभव पाया वह अलौकिक था। प्रभुभक्तों की क्षुधा मिटाकर उन्हें आनंदित करने के लिए साक्षात् माँ अन्नपूर्णा सकल वैभव से युक्त होकर पुरी धाम में सिद्ध हुईं थीं, ऐसा हमारा अनुभव रहा। भंडारखाने का जो भव्यरूप माणिकनगर में देखने को मिलता है उसी भव्य रूप के दर्शन हम सभीको पुरी धाम में भी हुए। व्यंजनों के प्रकार अधिक होने के कारण कुछ लोगों ने तो व्यवस्थापकों से शिकायत करते हुए कहा कि इतने पदार्थ मत बनाया करो हम समझ नहीं पा रहे कि क्या खाएँ और क्या न खाएँ। भगवान् दत्तात्रेय की झोली का प्रसाद तो मूलतः अत्यंत मधुर होता ही है परंतु पुरी धाम के संयोग से उस प्रसाद में जो अनुपम मिठास घुल गयी थी वह अवर्णनीय है। भंडारखाने में कार्यरत माणिकनगर से आए सभी कर्मचारियों ने रात-दिन परिश्रम करके खान-पान की ऐसी अद्भुत व्यवस्था की थी, कि सब देखकर आश्चर्यचकित रह गए। उल्लेखनीय है, कि एक ओर जहाँ हम सब यात्री पुरी धाम में विविध कार्यक्रमों का तथा दर्शन-महाप्रसादादि का आनंद ले रहे थे वहीं हमारे कार्यकर्ता निरंतर काम में लगे रहकर कार्यक्रम को सफल बना रहे थे। यात्रियों ने भी और विशेषकर महिला यात्रियों ने अत्यंत उत्साह के साथ विविध सेवाकार्यों में योगदान देकर आयोजन की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

यात्रा के आयोजन में श्रीप्रभु संस्थान के सभी कर्मचारियों एवं स्वंसेवकों का योगदान अत्यंत श्‍लाघनीय रहा। यात्रा की सफलता का सबसे बड़ा श्रेय इन्हीं कर्मचारियों एवं स्वंसेवकों को जाता है। ८०० यात्रियों के इतने बड़े समूह के साथ किसी नए स्थान पर ऐसा विशाल आयोजन करना कोई सामान्य बात नहीं है। प्रभु का अनुग्रह, श्रीजी का संकल्प और कार्यकर्ताओं के अथक परिश्रम के कारण ही इस असाध्य कार्य को अकल्पनीय सफलता प्राप्त हुई। जिम्मेदारियों का वहन करते हुए लोगों को तो दिखाई हम दे रहे थे परंतु वास्तव में गोवर्धन पर्वत तो किसी और ने ही अपनी कनिष्ठिका पर उठा रखा था।

पुरी धाम के माहात्म्य का वर्णन करते हुए बताया गया है, कि काशी में गंगास्नान का और रामेश्वर में २२ कुंडों के स्नान का जो महत्त्व है, वही महत्त्व पुरी धाम में समुद्रस्नान का है। १२ तारीख की सुबह प्रभुपादुकाओं को लेकर समस्त भक्तजनों के साथ समुद्र स्नान के लिए श्रीजी समुद्र तट पर पधारे। ‘‘श्रीमाणिक जय माणिक’’ गाते हुए सभीने समुद्र में प्रवेश किया। प्रभु के चरणस्पर्श के लिए समुद्रराज अत्यंत अधीर थे। तट से आकर टकराने वाली उन प्रचंड लहरों का उमंग और उत्साह अद्भुत था। जैसे कोई भूखा शेर अपने शिकार पर झपटता है ठीक वैसे ही सागर की भीषण लहरें प्रभुभक्तों पर आक्रमण कर रही थीं। ब्रह्मवृंद द्वारा मंत्रघोष के बीच श्रीजी ने प्रभुपादुकाओं का अभिषेक विधिवत् संपूर्ण करके संकल्पपूर्वक स्नान संपन्न किया। जो लोग कहते हैं कि समुद्र अत्यंत धीर-गंभीर होता है उन्हें एक बार पुरी के महोदधि के दर्शन करने चाहिए जो भगवान् के बालरूप की भांति अत्यंत नटखट है। समुद्र के उस उन्मत्त स्वरूप के दर्शन से सभी भक्तजन अत्यंत प्रफुल्लित हुए और सभीने जी भरकर लहरों में गोते लगाए। समुद्र स्नान तो हमने कईं स्थानों पर किया होगा परंतु यहाँ पर लहरों से मार खाने में, उनमें डूबकर बाहर आने में और ज़ोर की मार खा कर उछलकर तट पर गिर जाने में हमने जिस आनंद का अनुभव पाया वह अपूर्व था। श्रीमंदिर में चाहकर भी अपने प्रिय भक्तों का प्रेमालिंगन स्वीकार न कर पाने वाले जगन्नाथप्रभु जब भक्तजनों को अपने उर से लगाकर उन्हें अपने प्रेम और वात्सल्य से अभिषिक्त करना चाहते हैं तब वे समुद्र की लहरों में प्रगट होकर उन लहरों में आप्लावित प्रिय भक्तों को आलिंगन देकर उनपर कृपा करते हैं। रेतीले तट पर रखी हुईं प्रभुपादुकाओं से टकराती हुई लहरों का मोहक दृष्य देखकर एक क्षण के लिए लगा जैसे भगवान् जगन्नाथ और श्रीप्रभु का प्रेमालिंगन हो रहा हो। इस दृष्य को देखकर प्रभु महाराज की ही एक रचना का स्मरण हुआ जहॉं वे कहते हैं ‘‘कडकडोनि माणिकदास विठ्ठलासि भेटले!’’

समुद्र स्नान के पश्‍चात् श्रीजी ने भगवान् जगन्नाथ के दर्शन प्राप्त कर महाप्रसाद का लाभ लिया। इन ३-४ दिनों के दौरान सभी यात्रियों ने अनेक बार श्रीजगन्नाथप्रभु के दर्शन का लाभ लिया। जगन्नाथजी ने सबको अपनी ओर इतना आकर्षित कर लिया था, कि जब भी समय मिलता, लोग मंदिर की ओर कदम बढ़ा दिया करते थे। हज़ारों की भीड़ में और उन असंख्य लोगों में हम अपनी दो आंखों में प्रभु की छवि को संजोने में कितने सफल हुए यह तो मैं नहीं जानता पर हाँ इतना अवश्य कह सकता हॅूं, कि जगन्नाथ ने अपने विशाल नेत्रों से प्रत्येक भक्त पर कृपादृष्टि डालकर सभीका उद्धार किया है, इसमें संदेह नहीं है।

यात्रा के दौरान व्यवस्थापकों को कईं बार अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा। २-३ बार तो ऐसा हुआ, कि अनेक प्रयासों के बाद भी वे समस्याएँ नहीं सुलझ पाईं। सारे प्रयत्न करने के बाद सभी तरीके अपनाकर भी जब हम असहाय हो गए तब अचानक ही अपने-आप उन समस्याओं का निराकरण हो गया। शायद प्रभु हमें यह बता रहे हों कि तुम चाहे लाख प्रयत्न कर लो पर जब तक मेरा हाथ नहीं लगता तबतक काम पूरा नहीं हो सकता। संपूर्ण यात्रा के दौरान हमें पग-पग पर इस बात का आभास हो रहा था।

आश्विन कृष्ण तृतीया बुधवार १२ अक्तूबर को श्री सद्गुरु सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज के सांवत्सरिक श्राद्ध का विधान परंपरानुरूप संपन्न हुआ। अगले दिन १३ अक्तूबर को ब्रह्मलीन महाराजश्री की आराधना का कार्यक्रम नीलाद्रि सभागृह में अत्यंत भव्यरीति से परिपूर्ण हुआ। प्रभुभक्तों की उपस्थिति से कार्यक्रम स्थल का संपूर्ण वातावरण माणिकमय बन चुका था। लगभग १२०० किलोमीटर सुदूर उत्कल प्रांत में होने के बाद भी लग रहा था जैसे हम माणिकनगर के ही किसी सभा भवन में हों। आराधना के कार्यक्रम में अत्यंत प्रेमभरित अंतःकरण से सम्मिलित होकर उपस्थित भक्तजनों ने सद्गुरुचरणों में अपने श्रद्धासुमन अर्पित कर श्रीकृपा संपादित की।

नित्य सायं सभाभवन में भजन और प्रवचन के कार्यक्रम आयोजित हुए। श्रीआनंदराजजी ने वाद्यवृंद और सहगायकों के साथ मिलकर सुप्रसिद्ध सांप्रदायिक रचनाओं  को गाकर प्रभुचरणों में भजनसेवा समर्पित की। श्रीजी ने गीता के १३वें अध्याय के ज्ञानसाधनरूप ५ श्लोकों के विशद एवं अभिरम्य विवेचन से श्रोताओं का उद्बोधन किया। जगन्नाथ के परमपावन सन्निधान में सद्गुरु की कल्याणकारी वाणी का लाभ पाने वाले वे सभी भक्तगण अत्यंत सौभाग्यशाली हैं।

माणिकनगर में प्रभु के आंगन में कोल की जो शोभा होती है वही शोभा, वही भव्यता रासप्रिय जगन्नाथ के सन्निधान में भी देखने को मिली। जिस आनंदघन सद्गुरु ने हमारे जीवन को सुख, समृद्धि और प्रसन्नता से भर दिया हो उस सच्चिदानंद की आराधना तभी हो सकती है जब हम उन आनंददायी चरणकमलों को अपने हृदय के आनंदप्रवाह से अभिषिक्त कर उस आनंद को सर्वत्र प्रसृत करें। असीम आनंद को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करना जब असंभव हो जाता है, तब वह आनंदमग्न व्यक्ति नाचने-गाने लगता है, हंसने-रोने लगता है। लोग उसे पागल कहते हैं, उस पर हंसते हैं परंतु वह भक्त जिस आनंद का अनुभव पा रहा होता है उस आनंद को केवल तभी जाना जा सकता है जब हम भी उसीकी तरह पागल बनें। ‘‘किति वर्णू मी सुख हे अहाहा। संगीत साम हा ऊ हा। धन्य धन्य बोधक गुरु हा। मिठि घालिन मी परशिवघनरूपाला। ज्ञानरूप मार्तांडाला॥’’ हमारे सद्गुरु की रचनाओं को गाने में और उन गीतों के ताल से ताल मिलाकर नाचने में जो सुख है, वह स्वर्ग और वैकुंठ के सुख से कईं गुना अधिक श्रेष्ठ है। माणिकनगर के समस्त प्रभुभक्तों ने इस अद्भुत भजनानंद क्रीड़ा से, आयोजन की शोभा कईं गुना ब़ढ़ा दी।

कार्यक्रम के अंत में श्री आनंदराज जी ने अपना मनोगत व्यक्त करते हुए अत्यंत सुंदर भाषण किया। सभी यात्रियों को श्रीजी ने महाप्रसाद देकर अनुग्रहित किया और इस प्रकार यह ऐतिहासिक एवं अविस्मरणीय यात्रा अत्यंत भव्य-दिव्यरीति से संपन्न हुई।

१४ अक्तूबर की सुबह सभी यात्रियों ने भुवनेश्‍वर के लिए प्रयाण किया। भुवनेश्‍वर के अत्यंत प्राचीन एवं ऐतिहासिक श्रीलिंगराज देवालय में जाकर श्रीजी सहित समस्त भक्त परिवार ने दर्शन एवं प्रसाद प्राप्त किया। मंदिर के प्रांगण में सद्भक्तों ने महाप्रसाद का लाभ लिया और वापसी की रेल यात्रा के लिए रेल्वे स्टेशन की ओर निकले।जगन्नाथस्वामी की परमपवित्र भूमि को अंतिम नमन करके सभी यात्रियों ने दोपहर ३ बजे भुवनेश्‍वर से हैदराबाद की ओर प्रस्थान किया।

तैयारियों के लिए मई के महीने में जब हम पुरी गए थे तब वहाँ के स्थानीय लोगों ने हमें बताया था, कि अक्तूबर के महीने में पुरी प्रांत में जोरदार बारिश रहती है। इस बात को ध्यान में रखकर हमने भी नियोजन के संदर्भ में कुछ पूर्व तैयारियाँ की हुईं थीं। पुरी के लिए निकलने के एक दिन पूर्व जब हमने पुरी के लोगों से वहाँ के मौसम का हाल जाना और पता चला कि वहाँ लगातार वर्षा हो रही है। सिकंदराबाद से जब हम निकले तो पूरे रास्ते में बारिश थी। सारे व्यवस्थापक बड़े चिंतित थे, कि इसी तरह बारिश होती रही तो अनेक समस्याएँ हो सकती हैं। परंतु प्रभु की कृपा से जहाँ हम उतरे वहाँ, खोर्धा स्टेशन पर बिल्कुल बारिश नहीं थी। वहाँ का वातावरण देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई लेकिन मन में डर बना हुआ था, कि कहीं अगले ३-४ दिनों तक पुरी में बारिश न हो। जगन्नाथ का चमत्कार देखिए, कि संपूर्ण कार्यक्रम के दौरान पुरी का नभमंडल निरभ्र था और तेज़ धुप छाई हुई थी। लेकिन कार्यक्रम के समापन के बाद जब हम भुवनेश्‍वर से निकले तभी सारे प्रदेश में बारिश ने कहर मचा दिया। केवल देखने मात्र से चमत्कार नहीं दिखते, उन्हें अनुभव करना पड़ता है।

यात्रा के दौरान समस्त यात्रियों ने सभी नियमों तथा समय का अत्यंत अनुशानबद्धरीति से पालन किया। विनय, संयम और अनुशासन से व्यवस्थापकों के साथ अत्यंत उत्तम सहकार्य करके सभी यात्रियों ने आयोजन को अभूतपूर्व सफलता प्रदान की। भक्ति और श्रद्धा के साथ अत्यंत स्नेहपूर्वक यात्रा में सम्मिलित हुए सभी यात्रियों का हम प्रभुसंस्थान की ओर से हार्दिक अभिनंदन करते हैं।

१५ तारीख की शाम को गुलबर्गा रेलवे स्टेशन पर उतरकर यात्री हुमनाबाद पहुँचे। हुमनाबाद रेल्वे स्टेशन पर हुमनाबाद के अनेक गणमान्य नागरिकों ने पुष्पमालाओं से श्रीजी का स्वागत किया। हुमनाबाद से माणिकनगर के मार्ग में विविध स्थानों पर श्रीजी के वाहन को रोककर प्रतिष्ठित नगरवासियों ने तथा भक्तजनों ने श्रीजी का स्वागत किया। माणिकनगर वासियों ने अत्यंत भव्य स्वागत समारंभ का आयोजन किया था। हुमनाबाद स्थित महाद्वार से लेकर माणिकनगर तक नवयुवकों द्वारा जयकारों के बीच श्रीजी का आगमन हुआ। ढोल-ताशों की गड़गड़ाहट के बीच श्रीजी ने क्षेत्ररक्षक श्रीकालाग्निरुद्र हनुमान की आरती संपन्न की और प्रभुमंदिर की ओर निकले। श्रीजी के आगमन से सारे तरु पल्लव प्रफुल्लित थे। गुरुगंगा को छूकर निकलती हुई सर्द हवा के वात्सल्यमय झोंके से माणिकनगर ने श्रीजी का स्वागत किया। आरती के सुसज्जित थाल, नभमंडल में आतिशबाजी की चकाचौंध, पुष्पवृष्टि, वाद्यों की गूंज, और लोगों की भीड़ से महाद्वार के प्रांगण में उत्सव का वातावरण छाया हुआ था। महाद्वार से अंदर प्रवेश करने के बाद जैसे ही प्रभुमंदिर के शिखर के दर्शन हुए हमारी सारी थकान क्षणभर में मिट गई। नौ सीढ़ियाँ चढ़कर श्रीजी ने यात्रियों के साथ प्रभु मंदिर में प्रवेश किया। ‘‘मुक्ति भुवन सुर प्रयाग गंगा। तूचि आह्मा त्रिपदी आणि काशी।।’’ इन्हीं नौ सीढ़ियों के ऊपर स्थित जो परमपावन सन्निधान है वहीं पर हमारी काशी, मथुरा, पुरी और रामेश्‍वरादि सकलतीर्थ बसते हैं। हमारी प्रतीक्षा में प्रभुमहाराज अत्यंत प्रसन्नमुद्रा में विराजित थे। 800 भक्तों से भरे हुए रथ को खींचकर सभी के योगक्षेम का वहन करते हुए पुरी की यात्रा करवाकर हमें सुखरूप वापस लेकर आने वाले प्रभुमहाराज, इतने प्रचंड कार्य को पूर्ण करने के बाद भी अकर्ता की तरह अलिप्तभाव से बैठे हुए थे। जैसे उन्होंने कुछ किया ही न हो! श्रीजी ने श्रीप्रभु की आरती की और अवधूत चिंतन के जयघोष के साथ इस अद्वितीय यात्रा का समापन हुआ।

 

श्रीप्रभु की रचना का बोधप्रद विवेचन

कृष्णा मजकडे पाहू नको रे माझी घागर गेली फुटून।। प्रभु महाराज द्वारा रचित इस प्रसिद्ध पद को मैंने अनेक बार सुना है और गाया भी है परंतु इस पद के अंदर जो गूढार्थ निहित है उससे मैं अनभिज्ञ था। सौ उमा हेरूर जी ने इस पद पर जो विवेचन किया है वह अत्यंत समर्पक एवं बोधप्रद है। उन्होंने इस पद के गंभीर अर्थ पर जो प्रगल्भ चिंतन और मंथन किया है वह सचमुच स्तुत्य है। ऊपर-ऊपर से भक्तिरस प्रधान लगने वाली इस रचना के अंदर वेदांत के कितने गंभीर सिद्धांत छिपे हुए हैं यह जानकर आश्चर्य हुआ। कृष्ण की दृष्टि पड़ते ही संचित की मटकी का फूटना, प्रारब्ध की झारी, संसाररूपी सुव्यवस्थित वेणी का खुलना और अंतिम पंक्ति में हरि भक्ति के मार्ग पर सम्हलकर चलने की जो बात है वह जानकर मैं मंत्रमुग्ध हुआ। अंतिम पंक्ति में ‘‘हरि चरणी चाले जपून’’ का जो अर्थ लेखिका ने लगाया है वह अत्यंत अनोखा है। हम अपनी सामान्य बुद्धि और लौकिक दृष्टि से जब प्रभु की वाणी को, उनके उपदेशों को उनकी रचनाओं को समझने का प्रयास करते हैं तो वास्तविक अर्थ से भटक जाते हैं और स्वकल्पित अवधारणाऍं बना लेते हैं। इसीलिए महाराजश्री ने कहा है ज्ञान मार्तांडा दिव्य दृष्टिने जाणा।। महापुरुषों की लीलाओं को तथा उनके कार्य को जानने और समझने के लिए दिव्य दृष्टि की आवश्यकता होती है। और मेरा मानना है, कि सौ उमा ताई को प्रभु की कृपा से वह दृष्टि प्राप्त हुई जिसके फलस्वरूप उन्होंने प्रभु महाराज द्वारा रचित इस दिव्य पद के भीतर छिपे अमृतमय रहस्य के दर्शन स्वयं किए और हमें भी करवाए। प्रभुस्वरूप के सतत अनुसंधान के फलस्वरूप लेखिका पर जो कृपा हुई है वह यहॉं इस लेख में दृग्गोचर है। मैंने जब इस लेख को पढ़ा और लेखिका द्वारा प्रतिपादित अर्थ को समझा तो मुझे ऐसा लगा जैसे सालों से छिपा हुआ कोई खज़ाना मिल गया हो। बुद्धि की खिड़कियों को खोलने वाला यह सुंदर एवं उदात्त विवेचन मन को आह्लादित करने वाला है। सभी प्रभुभक्तों से मेरा अनुरोध है, कि इस लेख को अवश्य पढ़ें और श्रीप्रभु के इस पद में छिपे अर्थ का अनुसंधान करें। हमारा संप्रदाय ज्ञानयुक्त भक्ति का मार्गदर्शन करता है। सांप्रदायिक रचनाओं को गाना, पढ़ना और उनके अर्थ का अनुसंधान करना यह प्रत्येक प्रभुभक्त का परम कर्तव्य है और यही सर्वोच्च उपासना भी है। हमारे प्रभु महाराज ने इतने प्रेम और करुणापूर्वक, इतनी सारी सुंदर-सुंदर रचनाओं का अमृतमय उपहार हमें दिया है वह हमारे ही उद्धारहित है। गुरुमहाराज से प्राप्त उस अमूल्य उपहार का यदि हम उपयोग नहीं करेंगें तो और कौन करेगा? आंख मूंदकर घंटों तक ध्यान धारणादि विविध कठिण क्रियाओं को करते रहने से बेहतर है, कि हम श्रीप्रभु के इन अमृतमय पदों पर चिंतन करें। ऐसा करने से निश्चित ही हम उस भाव से एकरूप होकर प्रभुमय हो जाऍंगे इसमें संदेह नहीं है।

श्रीप्रभु का विश्वरूप दर्शन..

प्रभु सर्वत्र व्याप्त है। उपनिषदों में भी कहा गया है ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म।` जो कुछ है वह सब प्रभु का ही स्वरूप है। इस ब्रह्मांड के प्रत्येक कण में प्रभु बसा हुआ है। प्रभुचरित्र में कथा भी है, कि प्रभु ने बीदर नगर के भक्तजनों को अपने विश्वरूप का दर्शन दिया था। वे भक्तजन तो अत्यंत सौभाग्यशाली थे परंतु हमारा क्या? क्या हमें कभी प्रभु के दर्शन नहीं हो सकते?

बिलकुल हो सकते हैं और सदा होते भी हैं। श्रीदत्त जयंती महोत्सव के समय माणिकनगर आकर देखिए, आपको प्रभु के विश्वरूप के दर्शन अवश्‍य होंगे। यह महोत्सव हमें प्रभु की प्रभुता का, ऐश्वर्य का, सौंदर्य का एवं वैभव का परिचय देता है। अन्य समय पर सामान्यरूप से सर्वत्र व्याप्त प्रभु के विश्वरूप  दर्शन हमें श्रीदत्त जयंती महोत्सव के समय प्रकर्ष से होते हैं। इस महोत्सव के समय प्रभु की जाज्वल्य शक्ति का सर्वत्र ऐसा संचार होता है, कि माणिकनगर के वातावरण में एक विलक्षण ऊर्जा प्रवाहित हो जाती है। यही वह समय है, जब प्रभु अपने विराट् स्वरूप को प्रगट करता है और क्षण-प्रतिक्षण हमें दिखाई देता रहता है। सदा अव्यक्तरूप में रहनेवाला प्रभु इस महोत्सव के समय नाना माध्यमों से अपने दिव्य स्वरूप को अभिव्यक्त करता है। इसीलिए अन्य समय की तुलना में श्रीदत्त जयंती महोत्सव के समय प्रभु के सगुणरूप के दर्शन पाना अत्यंत सहज एवं सुलभ है।

श्रीदत्त जयंती महोत्सव के समय माणिकनगर पधारने वाला प्रत्येक व्यक्ति प्रभुस्वरूप है किंबहुना प्रभु ही भक्त बनकर इस उत्सव में सम्मिलित होता है। वह प्रभु ही है जो बच्चों का रूप धरकर उत्सव में लगे मेले का लुत्फ उठाता है। वह बूढ़ा आदमी भी प्रभु ही है, जो ठंड में किसी अंगीठी के समीप बैठकर ठिठुरता है। मेले में पागल का वेश धरकर अपनी उटपटांग हरकतों से लोगों का मनोरंजन करने वाला भी प्रभु ही है। बाज़ार में घूमने वाला वह भिखारी भी प्रभु है जो दिनभर यात्रियों से दुत्कार खाता रहता है। वह मिठाई बेचने वाला भी प्रभु स्वरूप है और आकाश में आनंद से मिठाइयाँ उछालने वाला भी प्रभु ही है और ज़मीन पर गिरी उन मिठाइयों को अपने मित्रों से छीना झपटी करके चुनने वाला बालक भी प्रभु है। पानी को केवल अपने स्पर्श से तीर्थ बनाने वाला भी प्रभु है और उस तीर्थ में डुबकी लगाने वाला भी प्रभु ही है। जो प्रभु, समाधि में बैठा हुआ है वही समाधि का अलंकार करने वाला है और वही स्वयं आभूषण भी है। आरती की ज्योति को प्रकाशित करने वाला भी प्रभु है और वह आरती गाने वाला भी प्रभु ही है। चांदी के झूले में बैठकर मज़े में झूलने वाला भी प्रभु ही है और झूला झुलाने वाला भी प्रभु ही है। जुलूस में बाजे की गड़गड़ाहट में नाचने वाला भी प्रभु है और राजोपचार सेवा में नर्तन करने वाला भी प्रभु ही है। महाद्वार में कशकोल लिए घूमने वाला फकीर भी वही है और धुनी के पास बैठा चिलम के कश भरने वाला साधु भी वही है। दक्षिणा दरबार में झोली फैलाने वाला भी प्रभु ही है और खैरात में दिल खोलकर सबकी झोली भरने वाला भी प्रभु ही है। मंदिर की चौखट पर औलाद की कामना करने वाला भी प्रभु ही है और भीड़ में अपनी माँ के बटुए से पैसे चुराने वाला बालक भी प्रभु स्वरूप ही है। भक्तजनों के चप्पलों की रक्षा करने वाला प्रभु है और चप्पलें चुराकर व्यवस्था की परीक्षा लेने वाला भी प्रभु ही है। दरबार में गाने वाला भी प्रभु ही है और वाह कहने वाला भी प्रभु ही है। पौर्णिमा की रात में हज़ारों लोगों को कड़ाके की ठंड में खुले बदन से प्रसाद परोसने वाला भी प्रभु ही है और झूठे पत्तलों में लोटने वाला भी प्रभु ही है। उत्सव के लिए कुछ रुपयों का अनुदान देकर शाही व्यवस्था की अपेक्षा करने वाला भी प्रभुस्वरूप है और चुपचाप से हुंडी में लाखों उंडेलकर चले जाने वाला भी प्रभु ही है। जयंती की राजोपचार सेवा को स्वीकार करने वाला भी प्रभु ही है और उसी पूजा के समय मंदिर के किसी गरम कोने में चादर ओढ़कर झपकियाँ मारने वाला भी प्रभु ही है। दरबार में सिंहासन पर विराजमान होकर प्रसाद देने वाला भी प्रभु ही है और कतार को तोड़कर सबको पीछे ढकेलते हुए दर्शन के लिए उतावला होनेवाला भी प्रभु ही है।

यही प्रभु का विश्वरूप है जिसके दर्शन हमें श्रीदत्त जयंती महोत्सव के समय होते हैं। यह दर्शन अद्भुत आनंद प्रदान करने वाला है। प्रभु के इस स्वरूप को देखने के लिए किसी दिव्य दृष्टि की आवश्‍यकता नहीं है। आप भी प्रभु के इस स्वरूप को देख सकते हैं परंतु नाम-रूप के भ्रम से ऊपर उठकर आपको अपनी दृष्टि को परिवर्तित करना होगा तभी यह संभव है। सर्वत्र प्रभु को देखने का अभ्यास यदि करना हो तो श्रीदत्त जयंती उत्सव से अच्छा दूसरा अवसर नहीं है। इस बार जब आप आएँ तो ध्यान रखें कि प्रभु केवल मंदिर के गर्भग्रह में ही नहीं अपितु समस्त दिशाओं में विभिन्न रूपों में आपको दर्शन दे रहा है। श्रीदत्त जयंती उत्सव में पधारिए और प्रभु के इस विश्वरूप को पहचानकर अपने हृदय में विराजित प्रभु के दर्शन कीजिए। मेंरा दावा है, कि प्रभु के इस विश्वरूप का दर्शन पाकर हमारे सद्गुरु श्री मार्तंड माणिकप्रभु महाराज के इस वचन की प्रत्यक्ष अनुभूति आप सबको अवश्‍य प्राप्त होगी।

तत्पद ईश्‍वर तूं क्रीडाया। एकचि बहुधा होसी।
आपणां विलोकुनी अति हर्षे। सर्वही आपणचि होसी।
प्रवेश करूनियां निजसत्तें। दृश्‍य जडां चेतविसी।
नामरूपाते दावुनियां। स्वस्वरूप लोपविसी॥

सकलमत शतक

सकलमत संप्रदाय के सिद्धांतो की काव्यात्मक संस्तुति

प्रथम पुष्प
(चौपाई छंद)
जय बया-मनोहर के नंदन
शतकोटि नमन शतकोटि नमन।
हे विघ्ननिवारक भवभंजन
स्वीकार करो शत शत वंदन।।१।।

वह सृष्टि सृजन का पूर्वकाल
था ब्रह्म एक केवल विशाल।
अवकाश रहित चिद्घन अखंड
था एक अकेला प्रभु प्रचंड।।२।।

संकल्प जगा प्रभु के मन में
सूने उस एकाकीपन में।
बहुविध अनेक मैं हो जाऊं
अगणित रूपों में खो जाऊं।।३।।

तब माया में खलबली मची
गुणभूतों ने मिल सृष्टि रची।
नभ अनिल अनल जल औ भूतल
नाना जीवों के देह सकल।।४।।

नर को विवेक का दान मिला
पशुओं से ऊंचा स्थान मिला।
दुर्लभ विशिष्ट सम्मान मिला
अत्युच्च श्रेष्ठ सोपान मिला।।५।।

मानव की बुद्धि निराली है
सत्‌ असत्‌ जानने वाली है।
सात्विक सुबुद्धि जो पाता है
नर नारायण बन जाता है।।६।।

लेकिन कलि का था दुष्प्रभाव
बिगड़ा मानव का निजस्वभाव।
भूला वह शास्त्रों का सुझाव
बढ़ गया धर्म मत में तनाव।।७।।

नैतिक जीवन तमग्रस्त हुआ
फिर सद्विवेक का अस्त हुआ।
आदर्श मार्ग उध्वस्त हुआ
सज्जन समाज संत्रस्त हुआ।।८।।

ईर्ष्या की विषमय ज्वाला से
विद्वेष घृणा की हाला से।
जनता के तन मन दहक उठे
बच्चे-बच्चे भी बहक उठे।।९।।

मतभेद छिड़ा मत पंथों में
विधिरीति प्रथा सिद्धांतों में।
पद्धति उपासना ग्रंथों में
धर्मांध मूढ़ दिग्भ्रांतों में।।१०।।

जो भड़का वैचारिक विवाद
सबके मन में छाया प्रमाद।
भिड़ गए लोग भी आपस में
विद्वेष बढ़ा जन मानस में।।११।।

बन उठी द्वेष की दीवारें
लेकर हाथों में तलवारें।
मत पंथ परस्पर लड़ते थे
औ’ बात-बात पर अड़ते थे।।१२।।

मत मेरा ही है सर्वश्रेष्ठ
हमसे है कोई नहीं ज्येष्ठ।।
यह समझ परस्पर भिड़ते थे
अंदर ही अंदर कुढ़ते थे।।१३।।

जी भरकर निंदा करते थे
मन अपना गंदा करते थे।
सोपान नरक के चढ़ते थे
रौरव पीड़ा में सड़ते थे।।१४।।

दुष्टों का फिर उत्पात बढ़ा
उनके सिर पर उन्माद चढा।
मानव के मन में स्वार्थ भरा
औ’ उसने दानव रूप धरा।।१५।।

विपदा में थी निज परंपरा
संताप ग्रस्त थी वसुंधरा।
चिंता में था सज्जन समाज
अब किसी तरह बच सके लाज।।१६।।

थे विषयभोग में सभी मगन
नैतिक मूल्यों का हुआ पतन।
दुष्टों के हाथों था शासन
बिक गया राज्य का सिंहासन।।१७।।

सब भूल गए थे राम भजन
करते थे तुच्छ सकाम यजन।
बस स्वार्थ देखते थे अपना
था स्वर्गप्राप्ति उनका सपना।।१८।।

वर्तन जनता के थे अशुद्ध
वैदिक परंपरा के विरुद्ध।
सारा समाज था बंटा हुआ
अध्यात्म मार्ग से हटा हुआ।।१९।।

नास्तिक मत का था यह प्रभाव
लोगों के थे बदले स्वभाव।
हरिभजन भक्ति का था अभाव
अब कौन इन्हें देता सुझाव।।२०।।

सब डूबे थे अंधियारे में
भटके भ्रम के गलियारे में।
सर्वत्र अविद्या का तम था
बस जनन मरण का ही क्रम था।।२१।।

सब विफल हो गए थे साधन
बस एक बचा था आलंबन।
श्रीप्रभु की शरण गए मुनिजन
अपनी पीड़ा का किया कथन।।२२।।

प्रभु द्रवित हुए कुछ कह न सके
भक्तों के दुख को सह न सके।
दृग मूंद लिए हो गए मौन
एकांत भंग अब करे कौन।।२३।।

थम गई काल की गति क्षणभर
निस्पन्द हुए खग पशु जलचर।
भयचकित स्तब्ध व्याकुल थे सब
था पता नहीं होगा क्या अब।।२४।।

प्रभु ने अपने लोचन खोले
स्मित हास्य वदन से वे बोले।
मैं हूँ तो तुम क्यों डरते हो?
मन को निराश क्यों करते हो।।२५।।

मेरा ले लो यह आज वचन
जिसका निश्चित होगा पालन।
होगा अधर्म का उच्चाटन
है अटल धर्म का संस्थापन।।२६।।

सुनकर प्रभु का यह आश्वासन
उल्लसित हुए सब आश्रितजन।
बज उठे वाद्य, जयघोष हुआ
सद्भक्तों को संतोष हुआ।।२७।।

सन्मार्ग विमल दिखलाने को
आंखों की धूल हटाने को।
आपस का बैर मिटाने को
सबको एकत्रित लाने को।।२८।।

जीवन का सत्य बताने को
वेदों के वचन सुनाने को।
ज्ञानामृत रस बरसाने को
अद्वैतमार्ग दिखलाने को।।२९।।

बंधन से मुक्त कराने को
फिर गीत शांति का गाने को।
उस पार हमें पहुँचाने को
गीता के पद दोहराने को।।३०।।

निद्रा से हमें जगाने को
अमृत का स्वाद चखाने को।
गा अहं ब्रह्म के गाने को
त्वं को तत्‌ से मिलवाने को।।३१।।

प्रभु सगुणरूप धरकर आए
झोली अपनी भरकर लाए।
गुरुसार्वभौम बनकर आए
भक्तों के हित चलकर आए।।३२।।

फिर निराकार साकार हुआ
माणिकप्रभु का अवतार हुआ।
इस धरती का उद्धार हुआ
श्रीगुरु का जयजयकार हुआ।।३३।।

छटनेवाला था अंधियारा
छाने वाला था उजियारा।
मार्तंड ज्ञानमय उदित हुआ
प्रभु भक्तों का मन मुदित हुआ।।३४।।

जल उठी सकलमत की मशाल
कट गया मोह का विषम जाल।
दीपित था उज्ज्वल पथ विशाल
इसपर चलने वाले निहाल।।३५।।

तत्पर अधीर थे श्रोतागण
हो योग्यमार्ग का संदर्शन।
हो गए सिद्ध प्रभु भी तत्क्षण
आरंभ हुआ फिर उद्बोधन।।३६।।

सिद्धांतसकलमत के विशेष
सारे तत्त्वों का समावेश।
ऐसा प्रभु ने संदेश दिया
अभिनव अमूल्य उपदेश दिया।।३७।।

द्वितीय पुष्प
(ताटंक छंद)
असुरों के निर्दालनहित प्रभु ने अनंत अवतार धरे
मानवता के रक्षणहित रावण जैसों के प्राण हरे।
लेकिन प्रभु ने दत्तरूप में सद्गुरु बन अवतार लिया
मनमंदिर में आत्मदीप की आभा का विस्तार किया।।३८।।

गुरुस्वरूप में प्रगटे प्रभु करने ज्ञानामृत का वितरण
अति आवश्यक था होना अद्वैत मार्ग का प्रतिपादन।
जन मानस से करने को अज्ञानतिमिर का निराकरण
श्रीप्रभु ने आरंभ किया प्रिय भक्तजनों से संभाषण।।३९।।

करुणाघन प्रभु बोले सबसे बात सुनो मेरी प्यारे
सच मानो मेरे प्रभु के प्रिय हो तुम सारे के सारे।
सब समान हैं किसी तरह का भेद नहीं उसके घर में
ना जाने तुम क्यों रखते हो भेदभाव परमेश्वर में।।४०।।

हम सबका भगवान्‌ एक है सकलजगत्‌ का वह स्वामी
वही सभी मत पंथों को प्रेरित करता अंतर्यामी।
सभी ग्रंथ सिद्धांतों का वह एकमात्र है आलंबन
इसीलिए हम सभी मतों पंथों को करते हैं वंदन।।४१।।

अरे भूलकर भी मत करना कभी दूसरों की निंदा
ना जाने कब पड़े गले में अतिघातक यम का फंदा।
शीश झुकाकर विनम्रता से सबका आदर किया करो
सबके अंदर जो-जो अच्छा हो उसको तुम लिया करो।।४२।।

मन में द्वेष अन्य पंथों का ऊपर से चल रहा भजन
ऐसों को कहते पाखंडी निश्चित उनका घोर पतन।
भजन सफल यदि करना हो तो शुद्ध रखो तुम अपना मन
कैसे उभरे प्रभु की छवि यदि दूषित हो मन का दर्पण।।४३।।

अपने बच्चों को दो संस्कृति नीति सभ्यता का शिक्षण
परंपरा का स्वाभिमान रख करो धर्म का संरक्षण।
अन्यों को ना पहुँचे पीड़ा ध्यान रहे इसका प्रतिक्षण
जनता की सेवा में अर्पित कर दो तुम अपना जीवन।।४४।।

मधुकर का लो उदाहरण देखो उसका अद्भुत लक्षण
अलग-अलग फूलों से वह करता केवल मधु संपादन।
तुम भी मधुमक्खी के इस अद्भुत सद्गुण को ग्रहण करो
दिव्य गुणों के संग्रह से आदर्श मार्ग का सृजन करो।।४५।।

सभी संप्रदायों के उत्तम तत्त्वों को संग्रहित करो
सर्वमान्य जो ज्योत सकलमत की उसको प्रज्ज्वलित करो।
देखो फिर उसके प्रकाश में क्लेष कलह सब सुलझेंगे
रीति प्रथाओं के विवाद में लोग कभी ना उलझेंगे।।४६।।

अपने लिए अन्य लोगों से रखते हो जैसी आशा
किया करो वैसा ही वर्तन बोलो सदा मधुर भाषा।
सज्जन दुर्जन आस्तिक नास्तिक किया करो सबका आदर
बसे हुए सर्वांतर्यामी प्रभु मेरे सबके अंदर।।४७।।

पूजन अर्चन आराधन की सबकी अपनी अलग प्रथा
इनको लेकर जब तुम लड़ते मुझको होती बड़ी व्यथा।
घाट भले ही अलग-अलग हों एक नदी का है पानी
पानी में भी भेद देखने की मत करना नादानी।।४८।।

अखिल जगत्‌ में सभी मतों का एक वही है निर्माता
सबके दिल की धड़कन है वह एकमेव जीवनदाता।
उपासना के मार्ग भिन्न हैं तरह-तरह के हैं साधन
लेकिन सबका लक्ष्य एक प्रभु उसका ही सबपर शासन।।४९।।

विविध धर्म के लोग भले ही विविध मार्ग अपनाते हैं
लेकिन सबके सभी अंत में एक सत्य को पाते हैं।
रीति रिवाजों की गलियों में ज्यादा भी तुम मत भटको
परम लक्ष्य को साध्य करो तुम साधन में ही मत अटको।।५०।।

नदियॉं सारी भिन्न दिशाओं में बह बहकर जाती हैं
लेकिन सभी अंत में जाकर सागर से मिल जाती हैं।
वैसे ही नाना रूपों को हम जो करते नित्य नमन
नमस्कार स्वीकार सभी के करता केवल रमा रमण।।५१।।

लोगों की बातें सुनकर तुम बहकावे में मत आना
ध्यान रहे निज मार्ग भटक कर और कहीं भी मत जाना।
राह पकड़कर एक निरंतर यदि तुम चलते जाओगे
आगे चलकर किसी एक दिन निश्चित प्रभु को पाओगे।।५२।।

भक्तों के हित प्रभु ने की संरचना अनंत पंथों की
भाषा रुचि संस्कृति अनुरूप हुई है रचना ग्रंथों की।
मार्ग एक है यही मुक्ति का योग्य नहीं ऐसा कहना
जो ऐसा कहते हैं उनकी संगत में तुम मत रहना।।५३।।

दुनियाभर के सभी संप्रदायों के साधन हैं उत्तम
सकल पंथ हैं निजशिष्यों को मुक्ति दिलाने में सक्षम।
एक स्त्रोत है हुआ जहॉं से सब मत पंथों का उद्गम
उसी स्त्रोत में मिल जाते सब, एक वही अंतिम संगम।।५४।।

अलग-अलग जन्मों में साधक विविध मार्ग अपनाता है
नाना पंथों के साधन से ज्ञान योग्यता पाता है।
लेकर अंतिम जन्म वही अद्वैत मार्ग पर आता है
महावाक्य के श्रवण-मनन से सहजमुक्त हो जाता है।।५५।।

एक अगर सबका मालिक तो लड़ते क्यों उसके बंदे
भिड़ने को तैयार सदा रहते लेकर लाठी-डंडे?
ऐसा प्रश्न किया शिष्यों ने प्रभु की वाणी को सुनकर
प्रभु बोले अब सुनो ध्यान से बोलूंगा जो है हितकर।।५६।।

अपनी-अपनी है सबकी छोटी सीमा अपनेपन की
उसके बाहर हैं जो-जो परवाह नहीं तुमको उनकी।
अपनों का ही सदा भला हो इसी सोच में तुम रहते
लेकिन अन्यों के हित थोड़ा सा भी कष्ट नहीं सहते।।५७।।

केवल अपने अपनों से तो पशु भी रखते हैं नाता
लेकिन मनुज वही सच्चा जो जग में सबको अपनाता।
बंधन तोड़ो अपनेपन की सीमा का विस्तार करो
जग सारा यह मेरा घर ऐसा कहकर व्यवहार करो।।५८।।

सब हैं अपने कौन पराया है इस छोटे से जग में
प्रेम दया करुणा का अंजन भरलो तुम अपने दृग में।
जब सब अपने ही होंगे तब कहो लड़ोगे तुम किससे
शत्रु नहीं होगा कोई तब क्या डरना इससे उससे।।५९।।

वास्तव में ईश्वर द्वारा निर्मित यह जग सुखदायक है
किंतु अविद्याग्रस्त जीव के लिए यही दुखदायक है।
नामरूप की देख विविधता जीव दिग्भ्रमित होता है
फिर बेचारा भेदजन्य दुख से जीवनभर रोता है।।६०।।

नामरूप को सत्य समझ फंस जाता जीव झमेले में
मोहित होकर खो जाता वह दृष्य जगत्‌ के मेले में।
माया के इस कुटिल खेल को तुम जब तक ना समझोगे
तब तक फिर-फिर जन्म मरण के चक्कर में ही उलझोगे।।६१।।

नामरूप में जो दिखती है वह सत्ता आत्मा की है
जीवों के अंदर की चेतनता भी जगदात्मा की है।
सकल विश्व का अधिष्ठान वह भ्रम का भी आधार वही
प्रलय मचाकर क्षणभर में रच देता फिर संसार वही।।६२।।

सतत बदलती रहने वाली नामाकृतियॉं सत्य नहीं
इनसे मिलने वाला सुख भी तुच्छ क्षणिक है नित्य नहीं।
ब्रह्म सत्य है इस जग का वह अविकारी है अव्यय है
कण-कण को जो व्याप रहा है उसका सुख ही अक्षय है।।६३।।

नामाकृतियॉं जो नश्वर हैं सत्य उन्हें तुम कहते हो
वास्तव में जो शाश्वत उसके प्रति अबोध ही रहते हो।
अंधकार में सर्प रज्जु पर जैसे भासित होता है
भ्रम के कारण आत्मा पर यह जग आभासित होता है।।६४।।

अस्तिभातिप्रिय नामरूप हैं मूल घटक इस रचना के
प्रथम तीन आत्मा के लक्षण अंतिम दो हैं माया के।
तुम क्यों होते भ्रमित देखकर नामरूप की विभिन्नता
उनके अंदर ब्रह्म छिपा है देखो उसकी अनंतता।।६५।।

भक्तों के सुखहित नाना रूपों को प्रभु करते धारण
इन रूपों में तुम करते हो भेद अविद्या के कारण।
एक सत्य ही अलग-अलग नामों से जाना जाता है
विभिन्न भाषाओं में अनेक संबोधन वह पात है।।६६।।

सकल विश्व में भरा हुआ रस व्यापक एक अकेला है
छिपकर लीला रचता छलिया मायावी अलबेला है।
घट में मिट्टी छिपी हुई ज्यों हिम में जल है छिपा हुआ
गहनों में ज्यों छिपा स्वर्ण त्यों ब्रह्म जगत्‌ में छिपा हुआ।।६७।।

दृष्य जगत्‌ के भीतर है चैतन्य भरा उसको जानों
सब रूपों के अंदर तुम बस एक उसीको पहचानो।
भेद दृष्टि के कारण ही भ्रम है पीड़ा है सब दुख है
दृष्टि बने सर्वात्मभाव की फिर देखो सुख ही सुख है।।६८।।

इसीलिए कहता हूँ निर्गुण की उपासना किया करो
आत्मरूप के अवबोधन को तुम प्रधानता दिया करो।
निर्विकल्प सर्वात्मा ही है मुख्य उपास्य सकलमत का
सकल संप्रदायों का प्रेरक चरम लक्ष्य साधन पथ का।।६९।।

गुरुगंगा विरजा तट पर गुरु सन्निधान प्रस्थापित है
पीठ यहॉं जो स्थापित उसपर चित्स्वरूप सुविराजित है।
संप्रदाय की उपासना का मुख्य केंद्र है यह आसन
है प्रतीक निर्गुण अरूप का महिमामय यह सिंहासन।।७०।।

सच्चित्सुख का सिंहासन यह जानो तुम इसकी महिमा
वह अरूप है इसीलिए है नहीं यहाँ कोई प्रतिमा।
साधकजन जब नित्य करेंगे सगुण ब्रह्म का आराधन
रिक्तासन करवाएगा उनको निर्गुण का सतत स्मरण।।७१।।

ईश्वर के नाना रूपों का तुम करना पूजन अर्चन
लेकिन सब रूपों में करना एक ब्रह्म के ही दर्शन।।
प्रेम भाव श्रद्धा से करना श्रीहरिहर का नित्य भजन
सभी रूप हैं एक उसीके बना रहे यह अनुचिंतन।।७२।।

राम कहो हनुमान कहो घनश्याम कहो या नारायण
दत्त कहो नरसिंह कहो तुम कहो रुद्र या मधुसूदन।
भेद तुम्हे जो दिखता है वह माया का है सम्मोहन
वास्तव में वह एक तत्त्व बस अलग-अलग हैं संबोधन।।७३।।

प्रभु के अंदर ही सबको, सबके अंदर प्रभु को देखो
सकल सृष्टि के कण कण में प्रभु के दर्शन करना सीखो।
मुझमें तुम में भेद नहीं है चिद्घनरूप तुम्हारा है
मिथ्या उपाधियों के कारण ही अलगाव हमारा है।।७४।।

अल्प नहीं तुम हो विराट निज क्षमता में विश्वास करो
आत्मभाव में सुस्थित रहने का तुम नित अभ्यास करो।
यही सकलमत संप्रदाय की उपासना का विधान है
आत्मा का अनुचिंतन ही इस संप्रदाय में प्रधान है।।७५।।

स्वस्वरूप का ज्ञान प्राप्त जो करते होते मुक्त वही
‘ज्ञानादेवतु कैवल्यम्‌’ शास्त्रों का भी मंतव्य यही।
निकल गए जो जन्मचक्र से लौटे फिर वे कभी नहीं
अनुभव पाकर ही समझोगे इन बातों का अर्थ सही।।७६।।

उपासना से जो साधक प्रभु को प्रसन्न कर लेते हैं
प्रभु उनको मधुमती शक्ति अपनी प्रदान कर देते हैं।
इसी शक्ति की महिमा से मधुमयीदृष्टि वे पाते हैं
सतत ब्रह्मरस के प्राशन से रसस्वरूप हो जाते हैं।।७७।।

पूर्णकृपा के अनुभव को अभिव्यक्त नहीं वह कर सकता
स्वयं ब्रह्म होकर भी ‘हूँ मैं ब्रह्म’ नहीं वह कह सकता।
लाभ-हानि निंदा-स्तुति में वह कभी न विचलित होता है
महामौन में मग्न सदा वह हंसता है ना रोता है।।७८।।

द्वेषराग से रहित स्वयं को साक्षी जिसने मान लिया
भव सागर से तर जाने का रहस्य उसने जान लिया।
दुखप्रवाह में असंग रहता नहीं कभी वह बहता है
विषय भोग लेकर भी अलिप्त कमलपत्र सा रहता है।।७९।।

मिथ्या मृगजल से कब तक तुम अपनी प्यास बुझाओगे
ज्ञानसुधा का आस्वादन लो पूर्णतृप्त हो जाओगे।
जीवभाव को त्यागो अब सर्वात्मभाव को अपनाओ
करामलकवत्‌ चित्स्वरूप को अपने ही अंदर पाओ।।८०।।

आत्मशांति के लिए लोग क्यों दूर घरों से जाते हैं
वहॉं बैठ कर फिर घर की ही यादों में खो जाते हैं।
सच्चा सिद्ध वही है जो निज स्वस्वरूप में रम जाता
विषयों के कोलाहल में भी अभंगसुख को है पाता।।८१।।

निर्जन वन में तो सबको ही शांति सहज मिल जाती है
रम्य तपोवन में क्षणभर जग की विस्मृति हो जाती है।
कर्तव्यों की भगदड़ में भी अविचल जिसकी तन्मयता
सच्चा जीवनमुक्त वही है शाश्वत उसकी चिन्मयता।।८२।।

अरे जीव तुम तो माया में आत्मा की हो परछाई
घोर अविद्या के कारण तुम भूल गए हो सच्चाई।
झूठे को सच दिखलाना ही माया की है चतुराई
सावधान रहना धोखा मत खा लेना मेरे भाई।।८३।।

भासमात्र है यह जग झूठे माया के बंधन सारे
भवनिद्रा से जागो देखो नित्यमुक्त तुम हो प्यारे।
जैसे हो वैसे ही रहना माया से तुम मत डरना
सहजमुक्त हो व्यर्थ मुक्त होने के प्रयास मत करना।।८४।।

चिदाकाश में छाया धूमिल नामरूप का ही कोहरा
उस कोहरे से ढका हुआ है सच्चित्सुख प्रभु का चेहरा।
सूरज की गरमी से जैसे क्षण में कोहरा छटता है
गुरु की पूर्णकृपा से परदा माया का भी हटता है।।८५।।

ज्ञान तुम्हे है पहले से ही विचार तुमको करना है
धो देने हैं विकार सारे अन्य नहीं कुछ बनना है।
काम हमारा मुख्य एक ही सत्प्रकाश फैलाना है
ज्ञानदृष्‍टि से तुम देखो तो यह जग एक खिलौना है।।८६।।

जीवभाव में तुम जबतक थे तबतक थी सारी पीड़ा
अहंब्रह्म कहते ही क्षण में सहज बनी जीवन क्रीड़ा।
नित्य आत्मरति में निमग्न तुम सदानंद स्वच्छंद रहो
फिरसे अब दुर्दम्य अहंता ममता का संबंध न हो।।८७।।

गुरु द्वारा संदर्शित साधन में निश्चल श्रद्धा रखना
संप्रदाय के प्रसारहित तुम चलते रहना मत थकना।
दिव्य सकलमत संप्रदाय का मार्ग सदा ज्योतिर्मय हो
जीवनयात्रा सुगम बने शुभदायक हो मंगलमय हो।।८८।।

ध्यान रखो अध्यात्म मार्ग में बात एक की ही सुनना
ज्ञानप्राप्ति के लिए कभी भी दो गुरुओं को मत चुनना।
बांटोगे  कैसे दो भागों में तुम अपनी अनन्यता
दो मार्गों पर भटकोगे तो हाथ लगेगी निष्फलता।।८९।।

सबके भीतर बसा हुआ मैं बन कर श्वासों का स्पन्दन
भाव यही कर देगा सारे मुक्‍त तुम्हारे भवबन्धन।
प्रेम भाव से जब जब तुमसे होगा मेंरा अनुचिंतन
होगा तुमको दर्शन मेंरा अपने ही अंदर तत्क्षण ।।९०।।

सुनकर प्रभु के उपदेशों को धन्य हो गए सब प्राणी
खुले सभी के ज्ञानचक्षु सुन श्रीप्रभु की अमृतवाणी।
प्रभु चरणों पर मस्तक रखकर किया सभीने अभिवादन
वचन दिया सबने प्रभु को होगा आज्ञा का प्रतिपालन।।९१।।

इन शब्दों में पूर्ण किया श्रीप्रभु ने अपना उद्बोधन
हर्षभरित दृग मूंद लिए औ’ किया मौन का आलंबन।
सगुणरूप आच्छादित कर निज चित्स्वरूप विस्तार किया
शरणागत निजभक्तजनों का श्रीप्रभु ने उद्धार किया।।९२।।

नहीं किया जा सकता शब्दों से प्रभुमहिमा का गुणगान
नेति नेति कहकर वेदों ने इसी तथ्य का दिया प्रमाण।
प्रभु की महिमा गाते गाते थक जाते सब शास्‍त्र पुराण
अप्रमेय औ’ अद्वितीय हैं प्रभु सबके जीवन औ’ प्राण।।९३।।

प्रभु ने स्थापित की समाज में शांति समन्वय समानता
आज उन्हीं के कारण दिखती है हमको यह समरसता।
प्रभु के ॠण से मुक्त कभी ना हो सकती है यह जनता
अनंत उपकारों के प्रति हम अर्पित करते कृतज्ञता।।९४।।

प्रभु की आभा से देखो सन्मार्ग मुक्‍ति का ज्योतित है
उनकी अद्भुत कार्यसिद्धि से जग यह सारा विस्मित है।
प्रभु के उपदेशों से देखो जन गण मन आकर्षित है
अपने ही भीतर उस शाश्वत सुख को पाकर हर्षित हैं।।९५।।

दिव्यपीठ अद्वैतज्ञान के प्रसारहित प्रस्थापित है
इस समाज का ज्योतिस्तंभ जाज्ज्वल्यमान यह दीपित है।
प्रखर तेज को देख दुष्टजन लज्जित खिन्न पराजित हैं
ज्ञानदीप के आश्रित जन का आत्मानंद अपरिमित है।।९६।।

भेदभाव से रहित दिव्य प्रभु का दरबार सुशोभित है
सिंहासन यह चित्सत्ता का द्योतक महिमामंडित है।
झोली सबकी भरने वाला सद्गुरु यहॉं विराजित है
यशोकीर्ति श्रीप्रभुमाणिक की दिग्दिगंत में कूजित है।।९७।।

सभी धर्म के लोगों ने श्रीप्रभु को अपना ही माना
अपने-अपने इष्ट स्वरूपों को श्रीप्रभु में ही जाना।
सभी मतों के साधक श्रीप्रभु के प्रति आदर दिखलाते
सकलमतस्थापक श्रीमाणिक इसीलिए हैं कहलाते।।९८।।

प्रभु माणिक ही गुरु नानक हैं शिवस्वरूप बसवेश्र्वर हैं
प्रभु ही हैं महबूब सुभानी मालिक हैं पैगंबर हैं।
प्रभु समर्थ श्रीरामदास हैं प्रभु कविवर ज्ञानेश्र्वर हैं
प्रभु ही सब में भरे हुए, जग प्रभुमय, प्रभु जगदीश्र्वर हैं।।९९।।

प्रभु माणिक की यशोकीर्ति से नित सुरभित भुवनत्रय हो
माणिक माणिक जपने वालों का सुख शाश्र्वत अक्षय हो।
प्रभु की अनुकंपा से पुलकित सबका जीवन प्रभुमय हो
सकलमतस्थापक सद्गुरु श्री माणिकप्रभु की जय जय हो।।१००।।

प्रभु के उपदेशों से जग यह धन्य धन्य अति धन्य हुआ
श्रीचरणों का आश्रय पा कर धन्य आज चैतन्य हुआ।
प्रभु चरणों में रखकर मस्तक नमस्कार अब करता हूँ
बार बार प्रभु पद रज कण को निजमस्तक पर धरता हूँ।।१०१।।

प्रभु के पदरज में देखो तुम है कैसी अद्भुत क्षमता
इस अयोग्य मतिमंद दास के हाथों लिखवाई कविता।
संप्रदाय के जो अभिमानी रचना उन्हें समर्पित है
मन उपवन का काव्यकुसुम यह प्रभुचरणों में अर्पित है।।१०२।।

।।जय जय हो सकलमता विजय हो।।

इस कविता को ई-बुक फॉरमेट में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक का उपयोग करें: https://manikprabhu.org/pdf-flip/sscdp.html

प्रभुनाम प्रचार का अभिनव प्रयोग

कल मेरे वॉट्सॅप पर किसीने एक वीडियो भेजा था। मैं वीडियो को डाउनलोड करके देखने लगा। किसी तेलुगू धारावाहिक का वह क्लिप था। उस दृष्य में ऐसा चित्रित किया गया था, कि एक पुरोहित मंत्रोच्चार करते हुए यजमान के हाथों से पूजा करवा रहे हैं। पंडितजी ने पूजा विधि का आरंभ ही ‘भक्तकार्यकल्पद्रुम गुरुसार्वभौम..’ के घोष से किया। उस धारावाहिक में श्रीप्रभु की ब्रीदावली को सुनकर मुझको और वहॉं उपस्थित सभीको बड़ा आश्चर्य हुआ। हमने सोचा, कि भला इस धारावाहिक में पंडितजी ने भक्तकार्यकल्पद्रुम का घोष कैसे किया? फिल्मों में तथा धारावाहिकों में पूजा-पाठ और अन्य धार्मिक विधियों के समय सामान्यरूप में जो मंत्र/श्लोक हमें सुनने को मिलते हैं उनसे हम सब परिचित हैं। परंतु इस धारावाहिक में जब हमने भक्तकार्य मंत्र सुना तो सब अचंभित रह गए। वैसे तो सारे विश्वभर में प्रभुभक्त इस महामंत्र का नित्य जप करते हैं परंतु किसी धारावाहिक में इस मंत्र को सुनना एक रोमांचक अनुभव था। मुझे लगता है कि ऐसा पहली ही बार हो रहा है और यह देखकर हम सभी प्रभुभक्तों को बड़ी प्रसन्नता हुई है।

जब पता लगाया गया कि यह कैसे हुआ तो मालूम पड़ा, कि उस धारावाहिक में पुरोहित का पात्र जिन्होंने निभाया है, वे प्रभु के ही भक्त हैं जिनका नाम है श्रीकिशन संगमेश्वर कुलकर्णी। किशन, तेलंगाणा स्थिति पटलूर ग्राम के प्रभुभक्त श्री संगमेश्वर राव कुलकर्णी के सुपुत्र हैं जिन्होंने ‘कुंकुम पूवू’ इस तेलुगु धारावाहिक में पुरोहित का पात्र निभाया है। हैदराबाद नगर में रहकर पौरोहित्य की विद्या में नैपुण्य प्राप्त करने वाले किशन को अभिनय क्षेत्र में काम करने का अवसर प्राप्त हुआ और इस धारावाहिक में उन्होंने अपनी भूमिका बड़ी कुशलता से निभाई है। धारावाहिक की शूटिंग के समय निर्देशक ने उनसे कहा होगा, कि ‘पंडितजी आपको यजमान के हाथों पूजा करवानी है और कुछ मंत्र पढ़ने हैं।’ किशन ने उस दृष्य की शूटिंग में पूजा की शुरुआत ही  भक्तकार्यकल्पद्रुम गुरुसार्वभौम . . इस महामंत्र से की और प्रभु के नाम की गूंज को लाखों लोगों तक पहुँचाकर विश्वभर में फैले प्रभुभक्तों को आनंदित किया।

जब हम किसी का अच्छा काम देखते हैं तो उसका उत्साहवर्धन करने के बजाय निंदा करने लग जाते हैं। आजकल के लोगों की यह आदत बन चुकी है। उस नज़रिये से सोचने वाले इस घटना को सुनकर कहेंगे, कि ऐसा उस पंडित ने कौनसा बड़ा तीर मारा है? उससे फायदा क्या हुआ? इसमें कौनसी बड़ी बात हो गई? इस कृत्य की इतनी प्रशंसा क्यों की जा रही है?

भगवान्‌ जब समुद्र पर सेतु का निर्माण करवा रहे थे, तब वानरों की भागदौड़ को देखकर एक छोटी सी गिलहरी को भी लगा, कि मैं भी इस महत्कार्य में कुछ मदद करूं। उस गिलहरी ने छोटे-छोटे कंकर पत्थर उठाकर समुद्र में फेंके और सेतु के निर्माण में अपना योगदान दिया। वानरों द्वारा बनाए हुए प्रचंड सेतु में भले ही गिलहरी का योगदान बहुत छोटा सा था परंतु उस गिलहरी की जो भावना थी उससे प्रभावित होकर साक्षात्‌ प्रभुरामचंद्र ने उस गिलहरी को अपने हाथों में लेकर उसका कौतुक किया। आज जब-जब रामसेतु की बात चलती है, तब-तब हर बार उस गिलहरी के प्रयासों को हम याद करते हैं। कार्य की विशालता से कार्य का मूल्यांकन नहीं होता अपितु उस कार्य के पीछे जो भावना होती है उसससे कार्य की महत्ता बढ़ती है। बस मन को प्रभु से युक्त करने की ज़रूरत है फिर अपने आप हमारे हाथों से होने वाला प्रत्येक कृत्य प्रभु के महान्‌ कार्य का पूरक बनने लगता है।

पिछले अनेक वर्षों से इस संप्रदाय के निष्ठावान सद्भक्तों ने संप्रदाय के प्रसार-प्रचार के उत्तरदायित्त्व को कुशलता से निभाया है। इसीलिए आज हम देखते हैं, कि विश्वभर में प्रभु की महिमा का सुगंध सर्वत्र प्रसृत हुआ है। प्रभु के भक्त होने के नाते हम सभीका यह कर्तव्य है, कि हम अपनी क्षमता के अनुसार प्रभु संप्रदाय तथा प्रभु के उपदेशों के प्रचार-प्रसार के बृहत्कार्य में अपना योगदान देते रहें।

सकल मतांसी मान द्यावा।
स्वकीय संप्रदाय वाढवावा।
ज्ञानमार्गे अभ्यासावा।
शुद्ध जो।।

सद्गुरु मार्तंड माणिकप्रभु महाराज ने तो गुरुसंप्रदाय के इस श्लोक के माध्यम से प्रत्येक सांप्रदायिक प्रभुभक्त को यह आदेश दिया है कि वह अपने संप्रदाय के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयासरत रहे।

संप्रदाय के प्रसार की जब बात होती है, तब कुछ लोगों को लगता है, कि यह काम तो श्रीजी का है और वे अपनी अमोघ वाणी के माध्यम से प्रभु के दिव्य संदेश का प्रचार कर ही रहे हैं। हॉं यह बात सत्य है परंतु ऐसा कहकर सारा भार श्रीजी पर डालकर स्वयं कुछ न करना भी ठीक नहीं है। पीठ परंपरा के आचार्य होने के नाते श्रीजी का तो यह कर्तव्य है ही परंतु सांप्रदायिक अनुयायी होने के नाते संप्रदाय के प्रचार में हमारा जो योगदान होना चाहिए उसके प्रति हमें सदा सजग रहना चाहिए।

हमें लगता है, कि प्रचार-प्रसार का कार्य तो बहुत बड़ा है और यह अकेले व्यक्ति से संभव नहीं है। प्रचार-प्रसार के लिए तो बड़े-बड़े कार्यक्रमों के आयोजन करने होंगे, बड़े-बड़े बॅनर लगाने होंगे, बड़े मंडपों में लोगों की भीड़ इखट्टी करनी होगी और बहुत सारा धन खर्च करना पड़ेगा, बहुत समय देना होगा तब जाकर कहीं प्रभु का प्रचार होगा। किशन कुलकर्णी ने अपने अभिनव कृत्य से यह सिद्ध करके दिखा दिया है कि मन में प्रभु के प्रति निस्सीम प्रेम और संप्रदाय का अभिमान रखकर जब कोई भक्त अपने असमर्थ हाथों से प्रभु के लिए कोई छोटा सा भी काम करता है तब प्रभु स्वयं उस कार्य को अत्यंत महान्‌ और विशाल बना देते हैं।

पटलूर के अभिमानी सद्भक्त किशन ने प्रभुनाम के प्रचार की जो अभिनव पद्धति अपनाई है वह सचमुच सराहनीय है। वैसे देखा जाए तो उस दृष्य की शूटिंग में उनसे किसी ने नहीं कहा था कि भक्तकार्य मंत्र बोलो परंतु जब भक्त का हृदय प्रभु से युक्त होता है तब उसके प्रत्येक कृत्य से प्रभु किसी न किसी रूप में जुड़ ही जाते हैं। अहंतारहित शुद्ध अंतःकरण में जब प्रभुसेवा की इच्छा जागती है तब स्वयं प्रभु इस देहरूपी रथ के सारथी बनकर हमारे हाथों से असाधारण कार्य करवाते हैं। इस विशिष्ट कृत्य से उन्होंने केवल अपने माता-पिता का ही नहीं अपितु समस्त भक्त परिवार का गौरव बढ़ाया है। आधुनिक प्रसार माध्यम से लाखों लोगों तक श्रीप्रभु की ब्रीदावली को पहुँचाकर उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण सेवा श्रीचरणों में समर्पित की है। इस प्रेरणादायी कार्य के लिए हम श्रीसंस्थान की ओर से तथा समस्त भक्त परिवार की ओर से श्री किशन कुलकर्णी का अभिनंदन करते हैं।