सकलमत संप्रदाय के सिद्धांतो की काव्यात्मक संस्तुति

प्रथम पुष्प
(चौपाई छंद)
जय बया-मनोहर के नंदन
शतकोटि नमन शतकोटि नमन।
हे विघ्ननिवारक भवभंजन
स्वीकार करो शत शत वंदन।।१।।

वह सृष्टि सृजन का पूर्वकाल
था ब्रह्म एक केवल विशाल।
अवकाश रहित चिद्घन अखंड
था एक अकेला प्रभु प्रचंड।।२।।

संकल्प जगा प्रभु के मन में
सूने उस एकाकीपन में।
बहुविध अनेक मैं हो जाऊं
अगणित रूपों में खो जाऊं।।३।।

तब माया में खलबली मची
गुणभूतों ने मिल सृष्टि रची।
नभ अनिल अनल जल औ भूतल
नाना जीवों के देह सकल।।४।।

नर को विवेक का दान मिला
पशुओं से ऊंचा स्थान मिला।
दुर्लभ विशिष्ट सम्मान मिला
अत्युच्च श्रेष्ठ सोपान मिला।।५।।

मानव की बुद्धि निराली है
सत्‌ असत्‌ जानने वाली है।
सात्विक सुबुद्धि जो पाता है
नर नारायण बन जाता है।।६।।

लेकिन कलि का था दुष्प्रभाव
बिगड़ा मानव का निजस्वभाव।
भूला वह शास्त्रों का सुझाव
बढ़ गया धर्म मत में तनाव।।७।।

नैतिक जीवन तमग्रस्त हुआ
फिर सद्विवेक का अस्त हुआ।
आदर्श मार्ग उध्वस्त हुआ
सज्जन समाज संत्रस्त हुआ।।८।।

ईर्ष्या की विषमय ज्वाला से
विद्वेष घृणा की हाला से।
जनता के तन मन दहक उठे
बच्चे-बच्चे भी बहक उठे।।९।।

मतभेद छिड़ा मत पंथों में
विधिरीति प्रथा सिद्धांतों में।
पद्धति उपासना ग्रंथों में
धर्मांध मूढ़ दिग्भ्रांतों में।।१०।।

जो भड़का वैचारिक विवाद
सबके मन में छाया प्रमाद।
भिड़ गए लोग भी आपस में
विद्वेष बढ़ा जन मानस में।।११।।

बन उठी द्वेष की दीवारें
लेकर हाथों में तलवारें।
मत पंथ परस्पर लड़ते थे
औ’ बात-बात पर अड़ते थे।।१२।।

मत मेरा ही है सर्वश्रेष्ठ
हमसे है कोई नहीं ज्येष्ठ।।
यह समझ परस्पर भिड़ते थे
अंदर ही अंदर कुढ़ते थे।।१३।।

जी भरकर निंदा करते थे
मन अपना गंदा करते थे।
सोपान नरक के चढ़ते थे
रौरव पीड़ा में सड़ते थे।।१४।।

दुष्टों का फिर उत्पात बढ़ा
उनके सिर पर उन्माद चढा।
मानव के मन में स्वार्थ भरा
औ’ उसने दानव रूप धरा।।१५।।

विपदा में थी निज परंपरा
संताप ग्रस्त थी वसुंधरा।
चिंता में था सज्जन समाज
अब किसी तरह बच सके लाज।।१६।।

थे विषयभोग में सभी मगन
नैतिक मूल्यों का हुआ पतन।
दुष्टों के हाथों था शासन
बिक गया राज्य का सिंहासन।।१७।।

सब भूल गए थे राम भजन
करते थे तुच्छ सकाम यजन।
बस स्वार्थ देखते थे अपना
था स्वर्गप्राप्ति उनका सपना।।१८।।

वर्तन जनता के थे अशुद्ध
वैदिक परंपरा के विरुद्ध।
सारा समाज था बंटा हुआ
अध्यात्म मार्ग से हटा हुआ।।१९।।

नास्तिक मत का था यह प्रभाव
लोगों के थे बदले स्वभाव।
हरिभजन भक्ति का था अभाव
अब कौन इन्हें देता सुझाव।।२०।।

सब डूबे थे अंधियारे में
भटके भ्रम के गलियारे में।
सर्वत्र अविद्या का तम था
बस जनन मरण का ही क्रम था।।२१।।

सब विफल हो गए थे साधन
बस एक बचा था आलंबन।
श्रीप्रभु की शरण गए मुनिजन
अपनी पीड़ा का किया कथन।।२२।।

प्रभु द्रवित हुए कुछ कह न सके
भक्तों के दुख को सह न सके।
दृग मूंद लिए हो गए मौन
एकांत भंग अब करे कौन।।२३।।

थम गई काल की गति क्षणभर
निस्पन्द हुए खग पशु जलचर।
भयचकित स्तब्ध व्याकुल थे सब
था पता नहीं होगा क्या अब।।२४।।

प्रभु ने अपने लोचन खोले
स्मित हास्य वदन से वे बोले।
मैं हूँ तो तुम क्यों डरते हो?
मन को निराश क्यों करते हो।।२५।।

मेरा ले लो यह आज वचन
जिसका निश्चित होगा पालन।
होगा अधर्म का उच्चाटन
है अटल धर्म का संस्थापन।।२६।।

सुनकर प्रभु का यह आश्वासन
उल्लसित हुए सब आश्रितजन।
बज उठे वाद्य, जयघोष हुआ
सद्भक्तों को संतोष हुआ।।२७।।

सन्मार्ग विमल दिखलाने को
आंखों की धूल हटाने को।
आपस का बैर मिटाने को
सबको एकत्रित लाने को।।२८।।

जीवन का सत्य बताने को
वेदों के वचन सुनाने को।
ज्ञानामृत रस बरसाने को
अद्वैतमार्ग दिखलाने को।।२९।।

बंधन से मुक्त कराने को
फिर गीत शांति का गाने को।
उस पार हमें पहुँचाने को
गीता के पद दोहराने को।।३०।।

निद्रा से हमें जगाने को
अमृत का स्वाद चखाने को।
गा अहं ब्रह्म के गाने को
त्वं को तत्‌ से मिलवाने को।।३१।।

प्रभु सगुणरूप धरकर आए
झोली अपनी भरकर लाए।
गुरुसार्वभौम बनकर आए
भक्तों के हित चलकर आए।।३२।।

फिर निराकार साकार हुआ
माणिकप्रभु का अवतार हुआ।
इस धरती का उद्धार हुआ
श्रीगुरु का जयजयकार हुआ।।३३।।

छटनेवाला था अंधियारा
छाने वाला था उजियारा।
मार्तंड ज्ञानमय उदित हुआ
प्रभु भक्तों का मन मुदित हुआ।।३४।।

जल उठी सकलमत की मशाल
कट गया मोह का विषम जाल।
दीपित था उज्ज्वल पथ विशाल
इसपर चलने वाले निहाल।।३५।।

तत्पर अधीर थे श्रोतागण
हो योग्यमार्ग का संदर्शन।
हो गए सिद्ध प्रभु भी तत्क्षण
आरंभ हुआ फिर उद्बोधन।।३६।।

सिद्धांतसकलमत के विशेष
सारे तत्त्वों का समावेश।
ऐसा प्रभु ने संदेश दिया
अभिनव अमूल्य उपदेश दिया।।३७।।

द्वितीय पुष्प
(ताटंक छंद)
असुरों के निर्दालनहित प्रभु ने अनंत अवतार धरे
मानवता के रक्षणहित रावण जैसों के प्राण हरे।
लेकिन प्रभु ने दत्तरूप में सद्गुरु बन अवतार लिया
मनमंदिर में आत्मदीप की आभा का विस्तार किया।।३८।।

गुरुस्वरूप में प्रगटे प्रभु करने ज्ञानामृत का वितरण
अति आवश्यक था होना अद्वैत मार्ग का प्रतिपादन।
जन मानस से करने को अज्ञानतिमिर का निराकरण
श्रीप्रभु ने आरंभ किया प्रिय भक्तजनों से संभाषण।।३९।।

करुणाघन प्रभु बोले सबसे बात सुनो मेरी प्यारे
सच मानो मेरे प्रभु के प्रिय हो तुम सारे के सारे।
सब समान हैं किसी तरह का भेद नहीं उसके घर में
ना जाने तुम क्यों रखते हो भेदभाव परमेश्वर में।।४०।।

हम सबका भगवान्‌ एक है सकलजगत्‌ का वह स्वामी
वही सभी मत पंथों को प्रेरित करता अंतर्यामी।
सभी ग्रंथ सिद्धांतों का वह एकमात्र है आलंबन
इसीलिए हम सभी मतों पंथों को करते हैं वंदन।।४१।।

अरे भूलकर भी मत करना कभी दूसरों की निंदा
ना जाने कब पड़े गले में अतिघातक यम का फंदा।
शीश झुकाकर विनम्रता से सबका आदर किया करो
सबके अंदर जो-जो अच्छा हो उसको तुम लिया करो।।४२।।

मन में द्वेष अन्य पंथों का ऊपर से चल रहा भजन
ऐसों को कहते पाखंडी निश्चित उनका घोर पतन।
भजन सफल यदि करना हो तो शुद्ध रखो तुम अपना मन
कैसे उभरे प्रभु की छवि यदि दूषित हो मन का दर्पण।।४३।।

अपने बच्चों को दो संस्कृति नीति सभ्यता का शिक्षण
परंपरा का स्वाभिमान रख करो धर्म का संरक्षण।
अन्यों को ना पहुँचे पीड़ा ध्यान रहे इसका प्रतिक्षण
जनता की सेवा में अर्पित कर दो तुम अपना जीवन।।४४।।

मधुकर का लो उदाहरण देखो उसका अद्भुत लक्षण
अलग-अलग फूलों से वह करता केवल मधु संपादन।
तुम भी मधुमक्खी के इस अद्भुत सद्गुण को ग्रहण करो
दिव्य गुणों के संग्रह से आदर्श मार्ग का सृजन करो।।४५।।

सभी संप्रदायों के उत्तम तत्त्वों को संग्रहित करो
सर्वमान्य जो ज्योत सकलमत की उसको प्रज्ज्वलित करो।
देखो फिर उसके प्रकाश में क्लेष कलह सब सुलझेंगे
रीति प्रथाओं के विवाद में लोग कभी ना उलझेंगे।।४६।।

अपने लिए अन्य लोगों से रखते हो जैसी आशा
किया करो वैसा ही वर्तन बोलो सदा मधुर भाषा।
सज्जन दुर्जन आस्तिक नास्तिक किया करो सबका आदर
बसे हुए सर्वांतर्यामी प्रभु मेरे सबके अंदर।।४७।।

पूजन अर्चन आराधन की सबकी अपनी अलग प्रथा
इनको लेकर जब तुम लड़ते मुझको होती बड़ी व्यथा।
घाट भले ही अलग-अलग हों एक नदी का है पानी
पानी में भी भेद देखने की मत करना नादानी।।४८।।

अखिल जगत्‌ में सभी मतों का एक वही है निर्माता
सबके दिल की धड़कन है वह एकमेव जीवनदाता।
उपासना के मार्ग भिन्न हैं तरह-तरह के हैं साधन
लेकिन सबका लक्ष्य एक प्रभु उसका ही सबपर शासन।।४९।।

विविध धर्म के लोग भले ही विविध मार्ग अपनाते हैं
लेकिन सबके सभी अंत में एक सत्य को पाते हैं।
रीति रिवाजों की गलियों में ज्यादा भी तुम मत भटको
परम लक्ष्य को साध्य करो तुम साधन में ही मत अटको।।५०।।

नदियॉं सारी भिन्न दिशाओं में बह बहकर जाती हैं
लेकिन सभी अंत में जाकर सागर से मिल जाती हैं।
वैसे ही नाना रूपों को हम जो करते नित्य नमन
नमस्कार स्वीकार सभी के करता केवल रमा रमण।।५१।।

लोगों की बातें सुनकर तुम बहकावे में मत आना
ध्यान रहे निज मार्ग भटक कर और कहीं भी मत जाना।
राह पकड़कर एक निरंतर यदि तुम चलते जाओगे
आगे चलकर किसी एक दिन निश्चित प्रभु को पाओगे।।५२।।

भक्तों के हित प्रभु ने की संरचना अनंत पंथों की
भाषा रुचि संस्कृति अनुरूप हुई है रचना ग्रंथों की।
मार्ग एक है यही मुक्ति का योग्य नहीं ऐसा कहना
जो ऐसा कहते हैं उनकी संगत में तुम मत रहना।।५३।।

दुनियाभर के सभी संप्रदायों के साधन हैं उत्तम
सकल पंथ हैं निजशिष्यों को मुक्ति दिलाने में सक्षम।
एक स्त्रोत है हुआ जहॉं से सब मत पंथों का उद्गम
उसी स्त्रोत में मिल जाते सब, एक वही अंतिम संगम।।५४।।

अलग-अलग जन्मों में साधक विविध मार्ग अपनाता है
नाना पंथों के साधन से ज्ञान योग्यता पाता है।
लेकर अंतिम जन्म वही अद्वैत मार्ग पर आता है
महावाक्य के श्रवण-मनन से सहजमुक्त हो जाता है।।५५।।

एक अगर सबका मालिक तो लड़ते क्यों उसके बंदे
भिड़ने को तैयार सदा रहते लेकर लाठी-डंडे?
ऐसा प्रश्न किया शिष्यों ने प्रभु की वाणी को सुनकर
प्रभु बोले अब सुनो ध्यान से बोलूंगा जो है हितकर।।५६।।

अपनी-अपनी है सबकी छोटी सीमा अपनेपन की
उसके बाहर हैं जो-जो परवाह नहीं तुमको उनकी।
अपनों का ही सदा भला हो इसी सोच में तुम रहते
लेकिन अन्यों के हित थोड़ा सा भी कष्ट नहीं सहते।।५७।।

केवल अपने अपनों से तो पशु भी रखते हैं नाता
लेकिन मनुज वही सच्चा जो जग में सबको अपनाता।
बंधन तोड़ो अपनेपन की सीमा का विस्तार करो
जग सारा यह मेरा घर ऐसा कहकर व्यवहार करो।।५८।।

सब हैं अपने कौन पराया है इस छोटे से जग में
प्रेम दया करुणा का अंजन भरलो तुम अपने दृग में।
जब सब अपने ही होंगे तब कहो लड़ोगे तुम किससे
शत्रु नहीं होगा कोई तब क्या डरना इससे उससे।।५९।।

वास्तव में ईश्वर द्वारा निर्मित यह जग सुखदायक है
किंतु अविद्याग्रस्त जीव के लिए यही दुखदायक है।
नामरूप की देख विविधता जीव दिग्भ्रमित होता है
फिर बेचारा भेदजन्य दुख से जीवनभर रोता है।।६०।।

नामरूप को सत्य समझ फंस जाता जीव झमेले में
मोहित होकर खो जाता वह दृष्य जगत्‌ के मेले में।
माया के इस कुटिल खेल को तुम जब तक ना समझोगे
तब तक फिर-फिर जन्म मरण के चक्कर में ही उलझोगे।।६१।।

नामरूप में जो दिखती है वह सत्ता आत्मा की है
जीवों के अंदर की चेतनता भी जगदात्मा की है।
सकल विश्व का अधिष्ठान वह भ्रम का भी आधार वही
प्रलय मचाकर क्षणभर में रच देता फिर संसार वही।।६२।।

सतत बदलती रहने वाली नामाकृतियॉं सत्य नहीं
इनसे मिलने वाला सुख भी तुच्छ क्षणिक है नित्य नहीं।
ब्रह्म सत्य है इस जग का वह अविकारी है अव्यय है
कण-कण को जो व्याप रहा है उसका सुख ही अक्षय है।।६३।।

नामाकृतियॉं जो नश्वर हैं सत्य उन्हें तुम कहते हो
वास्तव में जो शाश्वत उसके प्रति अबोध ही रहते हो।
अंधकार में सर्प रज्जु पर जैसे भासित होता है
भ्रम के कारण आत्मा पर यह जग आभासित होता है।।६४।।

अस्तिभातिप्रिय नामरूप हैं मूल घटक इस रचना के
प्रथम तीन आत्मा के लक्षण अंतिम दो हैं माया के।
तुम क्यों होते भ्रमित देखकर नामरूप की विभिन्नता
उनके अंदर ब्रह्म छिपा है देखो उसकी अनंतता।।६५।।

भक्तों के सुखहित नाना रूपों को प्रभु करते धारण
इन रूपों में तुम करते हो भेद अविद्या के कारण।
एक सत्य ही अलग-अलग नामों से जाना जाता है
विभिन्न भाषाओं में अनेक संबोधन वह पात है।।६६।।

सकल विश्व में भरा हुआ रस व्यापक एक अकेला है
छिपकर लीला रचता छलिया मायावी अलबेला है।
घट में मिट्टी छिपी हुई ज्यों हिम में जल है छिपा हुआ
गहनों में ज्यों छिपा स्वर्ण त्यों ब्रह्म जगत्‌ में छिपा हुआ।।६७।।

दृष्य जगत्‌ के भीतर है चैतन्य भरा उसको जानों
सब रूपों के अंदर तुम बस एक उसीको पहचानो।
भेद दृष्टि के कारण ही भ्रम है पीड़ा है सब दुख है
दृष्टि बने सर्वात्मभाव की फिर देखो सुख ही सुख है।।६८।।

इसीलिए कहता हूँ निर्गुण की उपासना किया करो
आत्मरूप के अवबोधन को तुम प्रधानता दिया करो।
निर्विकल्प सर्वात्मा ही है मुख्य उपास्य सकलमत का
सकल संप्रदायों का प्रेरक चरम लक्ष्य साधन पथ का।।६९।।

गुरुगंगा विरजा तट पर गुरु सन्निधान प्रस्थापित है
पीठ यहॉं जो स्थापित उसपर चित्स्वरूप सुविराजित है।
संप्रदाय की उपासना का मुख्य केंद्र है यह आसन
है प्रतीक निर्गुण अरूप का महिमामय यह सिंहासन।।७०।।

सच्चित्सुख का सिंहासन यह जानो तुम इसकी महिमा
वह अरूप है इसीलिए है नहीं यहाँ कोई प्रतिमा।
साधकजन जब नित्य करेंगे सगुण ब्रह्म का आराधन
रिक्तासन करवाएगा उनको निर्गुण का सतत स्मरण।।७१।।

ईश्वर के नाना रूपों का तुम करना पूजन अर्चन
लेकिन सब रूपों में करना एक ब्रह्म के ही दर्शन।।
प्रेम भाव श्रद्धा से करना श्रीहरिहर का नित्य भजन
सभी रूप हैं एक उसीके बना रहे यह अनुचिंतन।।७२।।

राम कहो हनुमान कहो घनश्याम कहो या नारायण
दत्त कहो नरसिंह कहो तुम कहो रुद्र या मधुसूदन।
भेद तुम्हे जो दिखता है वह माया का है सम्मोहन
वास्तव में वह एक तत्त्व बस अलग-अलग हैं संबोधन।।७३।।

प्रभु के अंदर ही सबको, सबके अंदर प्रभु को देखो
सकल सृष्टि के कण कण में प्रभु के दर्शन करना सीखो।
मुझमें तुम में भेद नहीं है चिद्घनरूप तुम्हारा है
मिथ्या उपाधियों के कारण ही अलगाव हमारा है।।७४।।

अल्प नहीं तुम हो विराट निज क्षमता में विश्वास करो
आत्मभाव में सुस्थित रहने का तुम नित अभ्यास करो।
यही सकलमत संप्रदाय की उपासना का विधान है
आत्मा का अनुचिंतन ही इस संप्रदाय में प्रधान है।।७५।।

स्वस्वरूप का ज्ञान प्राप्त जो करते होते मुक्त वही
‘ज्ञानादेवतु कैवल्यम्‌’ शास्त्रों का भी मंतव्य यही।
निकल गए जो जन्मचक्र से लौटे फिर वे कभी नहीं
अनुभव पाकर ही समझोगे इन बातों का अर्थ सही।।७६।।

उपासना से जो साधक प्रभु को प्रसन्न कर लेते हैं
प्रभु उनको मधुमती शक्ति अपनी प्रदान कर देते हैं।
इसी शक्ति की महिमा से मधुमयीदृष्टि वे पाते हैं
सतत ब्रह्मरस के प्राशन से रसस्वरूप हो जाते हैं।।७७।।

पूर्णकृपा के अनुभव को अभिव्यक्त नहीं वह कर सकता
स्वयं ब्रह्म होकर भी ‘हूँ मैं ब्रह्म’ नहीं वह कह सकता।
लाभ-हानि निंदा-स्तुति में वह कभी न विचलित होता है
महामौन में मग्न सदा वह हंसता है ना रोता है।।७८।।

द्वेषराग से रहित स्वयं को साक्षी जिसने मान लिया
भव सागर से तर जाने का रहस्य उसने जान लिया।
दुखप्रवाह में असंग रहता नहीं कभी वह बहता है
विषय भोग लेकर भी अलिप्त कमलपत्र सा रहता है।।७९।।

मिथ्या मृगजल से कब तक तुम अपनी प्यास बुझाओगे
ज्ञानसुधा का आस्वादन लो पूर्णतृप्त हो जाओगे।
जीवभाव को त्यागो अब सर्वात्मभाव को अपनाओ
करामलकवत्‌ चित्स्वरूप को अपने ही अंदर पाओ।।८०।।

आत्मशांति के लिए लोग क्यों दूर घरों से जाते हैं
वहॉं बैठ कर फिर घर की ही यादों में खो जाते हैं।
सच्चा सिद्ध वही है जो निज स्वस्वरूप में रम जाता
विषयों के कोलाहल में भी अभंगसुख को है पाता।।८१।।

निर्जन वन में तो सबको ही शांति सहज मिल जाती है
रम्य तपोवन में क्षणभर जग की विस्मृति हो जाती है।
कर्तव्यों की भगदड़ में भी अविचल जिसकी तन्मयता
सच्चा जीवनमुक्त वही है शाश्वत उसकी चिन्मयता।।८२।।

अरे जीव तुम तो माया में आत्मा की हो परछाई
घोर अविद्या के कारण तुम भूल गए हो सच्चाई।
झूठे को सच दिखलाना ही माया की है चतुराई
सावधान रहना धोखा मत खा लेना मेरे भाई।।८३।।

भासमात्र है यह जग झूठे माया के बंधन सारे
भवनिद्रा से जागो देखो नित्यमुक्त तुम हो प्यारे।
जैसे हो वैसे ही रहना माया से तुम मत डरना
सहजमुक्त हो व्यर्थ मुक्त होने के प्रयास मत करना।।८४।।

चिदाकाश में छाया धूमिल नामरूप का ही कोहरा
उस कोहरे से ढका हुआ है सच्चित्सुख प्रभु का चेहरा।
सूरज की गरमी से जैसे क्षण में कोहरा छटता है
गुरु की पूर्णकृपा से परदा माया का भी हटता है।।८५।।

ज्ञान तुम्हे है पहले से ही विचार तुमको करना है
धो देने हैं विकार सारे अन्य नहीं कुछ बनना है।
काम हमारा मुख्य एक ही सत्प्रकाश फैलाना है
ज्ञानदृष्‍टि से तुम देखो तो यह जग एक खिलौना है।।८६।।

जीवभाव में तुम जबतक थे तबतक थी सारी पीड़ा
अहंब्रह्म कहते ही क्षण में सहज बनी जीवन क्रीड़ा।
नित्य आत्मरति में निमग्न तुम सदानंद स्वच्छंद रहो
फिरसे अब दुर्दम्य अहंता ममता का संबंध न हो।।८७।।

गुरु द्वारा संदर्शित साधन में निश्चल श्रद्धा रखना
संप्रदाय के प्रसारहित तुम चलते रहना मत थकना।
दिव्य सकलमत संप्रदाय का मार्ग सदा ज्योतिर्मय हो
जीवनयात्रा सुगम बने शुभदायक हो मंगलमय हो।।८८।।

ध्यान रखो अध्यात्म मार्ग में बात एक की ही सुनना
ज्ञानप्राप्ति के लिए कभी भी दो गुरुओं को मत चुनना।
बांटोगे  कैसे दो भागों में तुम अपनी अनन्यता
दो मार्गों पर भटकोगे तो हाथ लगेगी निष्फलता।।८९।।

सबके भीतर बसा हुआ मैं बन कर श्वासों का स्पन्दन
भाव यही कर देगा सारे मुक्‍त तुम्हारे भवबन्धन।
प्रेम भाव से जब जब तुमसे होगा मेंरा अनुचिंतन
होगा तुमको दर्शन मेंरा अपने ही अंदर तत्क्षण ।।९०।।

सुनकर प्रभु के उपदेशों को धन्य हो गए सब प्राणी
खुले सभी के ज्ञानचक्षु सुन श्रीप्रभु की अमृतवाणी।
प्रभु चरणों पर मस्तक रखकर किया सभीने अभिवादन
वचन दिया सबने प्रभु को होगा आज्ञा का प्रतिपालन।।९१।।

इन शब्दों में पूर्ण किया श्रीप्रभु ने अपना उद्बोधन
हर्षभरित दृग मूंद लिए औ’ किया मौन का आलंबन।
सगुणरूप आच्छादित कर निज चित्स्वरूप विस्तार किया
शरणागत निजभक्तजनों का श्रीप्रभु ने उद्धार किया।।९२।।

नहीं किया जा सकता शब्दों से प्रभुमहिमा का गुणगान
नेति नेति कहकर वेदों ने इसी तथ्य का दिया प्रमाण।
प्रभु की महिमा गाते गाते थक जाते सब शास्‍त्र पुराण
अप्रमेय औ’ अद्वितीय हैं प्रभु सबके जीवन औ’ प्राण।।९३।।

प्रभु ने स्थापित की समाज में शांति समन्वय समानता
आज उन्हीं के कारण दिखती है हमको यह समरसता।
प्रभु के ॠण से मुक्त कभी ना हो सकती है यह जनता
अनंत उपकारों के प्रति हम अर्पित करते कृतज्ञता।।९४।।

प्रभु की आभा से देखो सन्मार्ग मुक्‍ति का ज्योतित है
उनकी अद्भुत कार्यसिद्धि से जग यह सारा विस्मित है।
प्रभु के उपदेशों से देखो जन गण मन आकर्षित है
अपने ही भीतर उस शाश्वत सुख को पाकर हर्षित हैं।।९५।।

दिव्यपीठ अद्वैतज्ञान के प्रसारहित प्रस्थापित है
इस समाज का ज्योतिस्तंभ जाज्ज्वल्यमान यह दीपित है।
प्रखर तेज को देख दुष्टजन लज्जित खिन्न पराजित हैं
ज्ञानदीप के आश्रित जन का आत्मानंद अपरिमित है।।९६।।

भेदभाव से रहित दिव्य प्रभु का दरबार सुशोभित है
सिंहासन यह चित्सत्ता का द्योतक महिमामंडित है।
झोली सबकी भरने वाला सद्गुरु यहॉं विराजित है
यशोकीर्ति श्रीप्रभुमाणिक की दिग्दिगंत में कूजित है।।९७।।

सभी धर्म के लोगों ने श्रीप्रभु को अपना ही माना
अपने-अपने इष्ट स्वरूपों को श्रीप्रभु में ही जाना।
सभी मतों के साधक श्रीप्रभु के प्रति आदर दिखलाते
सकलमतस्थापक श्रीमाणिक इसीलिए हैं कहलाते।।९८।।

प्रभु माणिक ही गुरु नानक हैं शिवस्वरूप बसवेश्र्वर हैं
प्रभु ही हैं महबूब सुभानी मालिक हैं पैगंबर हैं।
प्रभु समर्थ श्रीरामदास हैं प्रभु कविवर ज्ञानेश्र्वर हैं
प्रभु ही सब में भरे हुए, जग प्रभुमय, प्रभु जगदीश्र्वर हैं।।९९।।

प्रभु माणिक की यशोकीर्ति से नित सुरभित भुवनत्रय हो
माणिक माणिक जपने वालों का सुख शाश्र्वत अक्षय हो।
प्रभु की अनुकंपा से पुलकित सबका जीवन प्रभुमय हो
सकलमतस्थापक सद्गुरु श्री माणिकप्रभु की जय जय हो।।१००।।

प्रभु के उपदेशों से जग यह धन्य धन्य अति धन्य हुआ
श्रीचरणों का आश्रय पा कर धन्य आज चैतन्य हुआ।
प्रभु चरणों में रखकर मस्तक नमस्कार अब करता हूँ
बार बार प्रभु पद रज कण को निजमस्तक पर धरता हूँ।।१०१।।

प्रभु के पदरज में देखो तुम है कैसी अद्भुत क्षमता
इस अयोग्य मतिमंद दास के हाथों लिखवाई कविता।
संप्रदाय के जो अभिमानी रचना उन्हें समर्पित है
मन उपवन का काव्यकुसुम यह प्रभुचरणों में अर्पित है।।१०२।।

।।जय जय हो सकलमता विजय हो।।

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