चैत्र शुद्ध प्रतिपदा के दिन श्रीजी ने संकल्प किया, कि आश्विनमास में ब्रह्मलीन श्री सद्गुरु सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज की आराधना जगन्नाथपुरी धाम में संपन्न की जाएगी। कहते हैं, कि संकल्प में महान् शक्ति होती है। उस संकल्प की परिपूर्ति भले ही ५-६ महीनों के बाद होने वाली थी परंतु यह संकल्प स्वयं श्रीजी का होने के कारण आयोजिन की यशस्विता उसी दिन सुनिश्चित हो गई थी। भक्तजनों को सूचित किया गया, कि वे इस यात्रा में सम्मिलित हो सकते हैं। जून तक संस्थान के कार्यालय में करीब-करीब ८०० यात्रियों के रेजिस्ट्रेशन हो चुके थे। ८०० से अधिक भक्तजनों के इतने विशाल समूह को यात्रा पर ले जाना एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य था। तदनुसार श्रीजी के समर्थ नेतृत्व में यात्रा की तैयारियाँ आरंभ हुईं। कार्यक्रम तथा यात्रियों की व्यवस्था के संदर्भ में कईं बार कार्यकर्ताओं की बैठकें हुईं और गहन विचार-विमर्श के बाद एक सुनियोजित योजना बनाई गई और तदनुसार कार्यकर्ताओं को उनकी जिम्मेदारियाँ सौंप दी गईं। संस्थान के सभी कार्यकर्ता संपूर्ण उत्साह के साथ तैयारियों में जुट गए।
८ अक्तूबर की शाम को माणिक पौर्णिमा पर्व का आयोजन हुआ। जगन्नाथ पुरी की यात्रा में भक्तजनों का मूल उद्देश्य क्या होना चाहिए इस पर चर्चा करते हुए श्रीजी ने अत्यंत बोधप्रद प्रवचन किया। प्रवचन के अंतर्गत अनन्य शरणागति के विषय पर बात करते हुए श्रीजी, मानो इसी बात का संकेत कर रहे थे कि जब हम भगवान् जगन्नाथ की शरण में जा रहे हैं तो हमारा भाव अनन्य शरणागति का होना चाहिए क्योंकि केवल इसी भाव से भक्त का उद्धार होता है। श्रीजी के प्रवचन के पश्चात् सभी यात्रियों को प्रवास तथा कार्यक्रमों से संबंधित महत्वपूर्ण सूचनाओं से अवगत कराया गया।
९ तारीख की सुबह श्रीजी ने श्रीप्रभु की आरती संपन्न की और यहीं से जगन्नाथ पुरी की यात्रा का श्रीगणेश हुआ। ‘‘श्री माणिको जगन्नाथः सर्वतः पातु मां सदा’’ हे प्रभु आप जगन्नाथ हैं अस्तु आप ही सदा सर्वदा सर्वत्र हमारी रक्षा करें तथा हमारे योगक्षेम का वहन कर इस यात्रा को सफल करें, ऐसी प्रार्थना करते हुए भक्तजनों ने श्रीप्रभु को नमस्कार किया। हैदराबाद की ओर निकलने वाली पहली बस के सामने नारियल फोड़कर बस को रवाना किया गया। महाद्वार के प्रांगण से सभी यात्रियों ने बस से सिकंदराबाद रेल्वे स्टेशन की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में सदाशिवपेठ के अय्यप्पा स्वामी देवालय में भोजन ग्रहण कर सब लोग स्टेशन पर पहुँचे। पूर्व तैयारियों के लिए संस्थान के कर्मचारियों की एक मंडली ट्रकों में सामान लादकर सड़क मार्ग से पुरी के लिए निकल चुकी थी।
रेल्वे स्टेशन के प्लेटफार्म पर जिधर देखो उधर केसरी रंग की टोपीयाँ पहने प्रभुभक्त ही दिखाई दे रहे थे। प्रभुभक्तों की उपस्थिति के कारण प्रायः कोलाहल से भरे हुए उस परिसर में एक विलक्षण प्रसन्नता छाई हुई थी। जहाँ एक ओर सभी यात्रीगण ट्रेन की प्रतीक्षा में आराम से बैठे हुए थे वहीं दूसरी ओर कार्यकर्ताओं की भाग-दौड़ लगातार जारी थी। स्वयं श्रीजी भी यात्रियों के बीच जाकर क्षेम-कुशल देख रहे थे। शाम के ४ बजे माणिकप्रभु महाराज की जय के जयघोष के साथ रेल्वे का प्रवास शुरू हुआ। ट्रेन की १४-१५ बोगियाँ प्रभुभक्तों से ही भरी हुई थीं। जैसे-जैसे जगन्नाथ स्वामी और भक्तजनों के बीच की दूरी कम हो रही थी वैसे-वैसे भक्तजनों का उत्साह और श्रीदर्शन की आतुरता बढ़ती जा रही थी। रेलगाड़ी की बोगियाँ भजन की धुनों से गूंज रही थी। मृदंग और तबले की ताल के साथ तेज़ रफ्तार से दौड़ रही रेलगाड़ी के पहियों की खडल-खडल की आवाज़ अत्यंत आह्लादक थी।
ए वन से एस टेन तक सभी बोगियों में छोटी-छोटी मंडलियां बनाकर भक्तजन प्रभु के नामस्मरण में रम गए थे। भजन और संगीत के माहौल में इतना लंबा रास्ता कैसे कट गया इसका किसी को भान नहीं रहा। भजन में मग्न भक्तजनों को देखकर महाराजश्री की एक रचना का स्मरण होता है, जहॉं वे कहते हैं ‘‘सद्गुरु चरणी ठेउनिया भार चालवी संसार तोची निर्भय’’ जो भक्त अपनी सांसारिक चिंताओं को गुरुचरणों में अर्पित करके भजन के रंग में दंग हो जाता है वही मृत्यु के भय से मुक्ति पाकर निर्भय बन जाता है।
रेलयात्रा के दौरान अलग-अलग स्टेशनों पर भोजन तथा उपाहार की व्यवस्था उन-उन स्थानों के भक्तजनों ने अत्यंत निष्ठा एवं आत्मीयता से की थी। रेल यात्रा के दौरान संस्थान के कार्यकर्ताओं ने यात्रियों के खान-पान की व्यवस्था इतनी अद्भुतरीति से की थी, कि उनकी जितनी तारीफ की जाए कम है। किसी-किसी स्टेशन पर तो खाने के बक्से चढ़ाने के लिए केवल १ मिनट का ही समय होता था लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी हमारे कार्यकर्ता पलक झपकने तक पानी की बोतलों सहित ८०० यात्रियों के भोजन का सामान बोगियों में चढ़ाकर ट्रेन निकले की राह देखते थे। सभी यात्रियों को ठीक समय पर उनके-उनके स्थानों पर खाने के पार्सल वितरित करने का जो कार्य कार्यकर्ताओं ने किया उसे देखकर रेल्वे के पैंट्री वाले भी परेशान हो गए थे।
१० तारीख की शाम को खोर्धा रोड स्टेशन पर उतरकर सभी यात्री सड़क मार्ग से पुरी धाम की ओर निकले। गोधूलि की वेला में जय जगन्नाथ की जय जयकार के साथ ८०० यात्रियों ने श्रीपुरुषोत्तमक्षेत्र में प्रवेश किया। जगन्नाथस्स्वामी नयनपथगामी भवतु मे। द्वारका के प्रासाद के द्वार पर खड़े सुदामा अपने प्रिय सखा से मिलने के लिए जैसे व्याकुल हो गए थे ठीक वैसी ही अवस्था पुरी पहुँचने के बाद यात्रियों की हो गई थी। पहली बार श्रीमंदिर के उत्तुंग शिखर का दर्शन पाकर और नीलचक्र पर लहराते हुए ध्वज को देखकर हमें जिस धन्यता की अनुभूति हुई वह वर्णनातीत है। भगवान् जगन्नाथ के दर्शन के लिए भक्तजन इतने अधीर थे कि कमरों में सामान रखकर स्नानादि संपन्न होते ही श्रीमंदिर की ओर भक्तजनों की होड़ लग गई। पुरी की सड़कों पर, वहाँ की गलियों में तथा मंदिर परिसर में प्रभुभक्त ऐसे घुल मिल गए थे जैसे अनेक वर्षों से उस स्थान से परिचित हों। पुरी नगर के नीलाद्रि भक्त निवास, नीलांचल भक्त निवास, गुंडीचा भक्त निवास तथा पुरुषोत्तम भक्त निवास के वातानुकूलित कमरों में भक्तजनों के आवास की व्यवस्था की गई थी। श्रीजी के मार्गदर्शन में यात्रियों के आवास की व्यवस्था अत्यंत सुनियोजितरीति से हुई थी।
११, १२ और १३ अक्तूबर – इन तीन दिनों की अवधि में भजन, प्रवचन तथा पूजा अर्चादि धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन नीलाद्रि भक्त निवास के सभाभवन में किया गया था। नित्य प्रातः विप्रमंडली की उपस्थिति में श्रीजी द्वारा श्रीप्रभु पादुकाओं की महापूजा संपन्न हुई। इस महापूजा में नित्यानुष्ठान के अंगभूत मधुमतीसहित श्रीदत्तात्रेयपूजन, श्रीचक्र का कुंकमार्चन तथा चैतन्यलिंग की रुद्राभिषेकयुक्त पूजा संपन्न होने के पश्चात् भक्तजन तीर्थ प्रसाद ग्रहण करते थे।
चार धामों में से पुरी का जो धाम है, वह भोजन के लिए प्रसिद्ध है। इस धाम में प्रभु के प्रसाद की महिमा असाधारण है। कहते हैं, कि भगवान् रामेश्वर में स्नान करते हैं, द्वारका में अलंकार धारण करते हैं, पुरी में भोजन और बदरीनाथ में विश्राम करते हैं। इसलिए पुरी धाम में यात्रियों ने प्रभु का प्रसाद ग्रहण करने के बाद जिस तृप्ति और समाधान का अनुभव पाया वह अलौकिक था। प्रभुभक्तों की क्षुधा मिटाकर उन्हें आनंदित करने के लिए साक्षात् माँ अन्नपूर्णा सकल वैभव से युक्त होकर पुरी धाम में सिद्ध हुईं थीं, ऐसा हमारा अनुभव रहा। भंडारखाने का जो भव्यरूप माणिकनगर में देखने को मिलता है उसी भव्य रूप के दर्शन हम सभीको पुरी धाम में भी हुए। व्यंजनों के प्रकार अधिक होने के कारण कुछ लोगों ने तो व्यवस्थापकों से शिकायत करते हुए कहा कि इतने पदार्थ मत बनाया करो हम समझ नहीं पा रहे कि क्या खाएँ और क्या न खाएँ। भगवान् दत्तात्रेय की झोली का प्रसाद तो मूलतः अत्यंत मधुर होता ही है परंतु पुरी धाम के संयोग से उस प्रसाद में जो अनुपम मिठास घुल गयी थी वह अवर्णनीय है। भंडारखाने में कार्यरत माणिकनगर से आए सभी कर्मचारियों ने रात-दिन परिश्रम करके खान-पान की ऐसी अद्भुत व्यवस्था की थी, कि सब देखकर आश्चर्यचकित रह गए। उल्लेखनीय है, कि एक ओर जहाँ हम सब यात्री पुरी धाम में विविध कार्यक्रमों का तथा दर्शन-महाप्रसादादि का आनंद ले रहे थे वहीं हमारे कार्यकर्ता निरंतर काम में लगे रहकर कार्यक्रम को सफल बना रहे थे। यात्रियों ने भी और विशेषकर महिला यात्रियों ने अत्यंत उत्साह के साथ विविध सेवाकार्यों में योगदान देकर आयोजन की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
यात्रा के आयोजन में श्रीप्रभु संस्थान के सभी कर्मचारियों एवं स्वंसेवकों का योगदान अत्यंत श्लाघनीय रहा। यात्रा की सफलता का सबसे बड़ा श्रेय इन्हीं कर्मचारियों एवं स्वंसेवकों को जाता है। ८०० यात्रियों के इतने बड़े समूह के साथ किसी नए स्थान पर ऐसा विशाल आयोजन करना कोई सामान्य बात नहीं है। प्रभु का अनुग्रह, श्रीजी का संकल्प और कार्यकर्ताओं के अथक परिश्रम के कारण ही इस असाध्य कार्य को अकल्पनीय सफलता प्राप्त हुई। जिम्मेदारियों का वहन करते हुए लोगों को तो दिखाई हम दे रहे थे परंतु वास्तव में गोवर्धन पर्वत तो किसी और ने ही अपनी कनिष्ठिका पर उठा रखा था।
पुरी धाम के माहात्म्य का वर्णन करते हुए बताया गया है, कि काशी में गंगास्नान का और रामेश्वर में २२ कुंडों के स्नान का जो महत्त्व है, वही महत्त्व पुरी धाम में समुद्रस्नान का है। १२ तारीख की सुबह प्रभुपादुकाओं को लेकर समस्त भक्तजनों के साथ समुद्र स्नान के लिए श्रीजी समुद्र तट पर पधारे। ‘‘श्रीमाणिक जय माणिक’’ गाते हुए सभीने समुद्र में प्रवेश किया। प्रभु के चरणस्पर्श के लिए समुद्रराज अत्यंत अधीर थे। तट से आकर टकराने वाली उन प्रचंड लहरों का उमंग और उत्साह अद्भुत था। जैसे कोई भूखा शेर अपने शिकार पर झपटता है ठीक वैसे ही सागर की भीषण लहरें प्रभुभक्तों पर आक्रमण कर रही थीं। ब्रह्मवृंद द्वारा मंत्रघोष के बीच श्रीजी ने प्रभुपादुकाओं का अभिषेक विधिवत् संपूर्ण करके संकल्पपूर्वक स्नान संपन्न किया। जो लोग कहते हैं कि समुद्र अत्यंत धीर-गंभीर होता है उन्हें एक बार पुरी के महोदधि के दर्शन करने चाहिए जो भगवान् के बालरूप की भांति अत्यंत नटखट है। समुद्र के उस उन्मत्त स्वरूप के दर्शन से सभी भक्तजन अत्यंत प्रफुल्लित हुए और सभीने जी भरकर लहरों में गोते लगाए। समुद्र स्नान तो हमने कईं स्थानों पर किया होगा परंतु यहाँ पर लहरों से मार खाने में, उनमें डूबकर बाहर आने में और ज़ोर की मार खा कर उछलकर तट पर गिर जाने में हमने जिस आनंद का अनुभव पाया वह अपूर्व था। श्रीमंदिर में चाहकर भी अपने प्रिय भक्तों का प्रेमालिंगन स्वीकार न कर पाने वाले जगन्नाथप्रभु जब भक्तजनों को अपने उर से लगाकर उन्हें अपने प्रेम और वात्सल्य से अभिषिक्त करना चाहते हैं तब वे समुद्र की लहरों में प्रगट होकर उन लहरों में आप्लावित प्रिय भक्तों को आलिंगन देकर उनपर कृपा करते हैं। रेतीले तट पर रखी हुईं प्रभुपादुकाओं से टकराती हुई लहरों का मोहक दृष्य देखकर एक क्षण के लिए लगा जैसे भगवान् जगन्नाथ और श्रीप्रभु का प्रेमालिंगन हो रहा हो। इस दृष्य को देखकर प्रभु महाराज की ही एक रचना का स्मरण हुआ जहॉं वे कहते हैं ‘‘कडकडोनि माणिकदास विठ्ठलासि भेटले!’’
समुद्र स्नान के पश्चात् श्रीजी ने भगवान् जगन्नाथ के दर्शन प्राप्त कर महाप्रसाद का लाभ लिया। इन ३-४ दिनों के दौरान सभी यात्रियों ने अनेक बार श्रीजगन्नाथप्रभु के दर्शन का लाभ लिया। जगन्नाथजी ने सबको अपनी ओर इतना आकर्षित कर लिया था, कि जब भी समय मिलता, लोग मंदिर की ओर कदम बढ़ा दिया करते थे। हज़ारों की भीड़ में और उन असंख्य लोगों में हम अपनी दो आंखों में प्रभु की छवि को संजोने में कितने सफल हुए यह तो मैं नहीं जानता पर हाँ इतना अवश्य कह सकता हॅूं, कि जगन्नाथ ने अपने विशाल नेत्रों से प्रत्येक भक्त पर कृपादृष्टि डालकर सभीका उद्धार किया है, इसमें संदेह नहीं है।
यात्रा के दौरान व्यवस्थापकों को कईं बार अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा। २-३ बार तो ऐसा हुआ, कि अनेक प्रयासों के बाद भी वे समस्याएँ नहीं सुलझ पाईं। सारे प्रयत्न करने के बाद सभी तरीके अपनाकर भी जब हम असहाय हो गए तब अचानक ही अपने-आप उन समस्याओं का निराकरण हो गया। शायद प्रभु हमें यह बता रहे हों कि तुम चाहे लाख प्रयत्न कर लो पर जब तक मेरा हाथ नहीं लगता तबतक काम पूरा नहीं हो सकता। संपूर्ण यात्रा के दौरान हमें पग-पग पर इस बात का आभास हो रहा था।
आश्विन कृष्ण तृतीया बुधवार १२ अक्तूबर को श्री सद्गुरु सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज के सांवत्सरिक श्राद्ध का विधान परंपरानुरूप संपन्न हुआ। अगले दिन १३ अक्तूबर को ब्रह्मलीन महाराजश्री की आराधना का कार्यक्रम नीलाद्रि सभागृह में अत्यंत भव्यरीति से परिपूर्ण हुआ। प्रभुभक्तों की उपस्थिति से कार्यक्रम स्थल का संपूर्ण वातावरण माणिकमय बन चुका था। लगभग १२०० किलोमीटर सुदूर उत्कल प्रांत में होने के बाद भी लग रहा था जैसे हम माणिकनगर के ही किसी सभा भवन में हों। आराधना के कार्यक्रम में अत्यंत प्रेमभरित अंतःकरण से सम्मिलित होकर उपस्थित भक्तजनों ने सद्गुरुचरणों में अपने श्रद्धासुमन अर्पित कर श्रीकृपा संपादित की।
नित्य सायं सभाभवन में भजन और प्रवचन के कार्यक्रम आयोजित हुए। श्रीआनंदराजजी ने वाद्यवृंद और सहगायकों के साथ मिलकर सुप्रसिद्ध सांप्रदायिक रचनाओं को गाकर प्रभुचरणों में भजनसेवा समर्पित की। श्रीजी ने गीता के १३वें अध्याय के ज्ञानसाधनरूप ५ श्लोकों के विशद एवं अभिरम्य विवेचन से श्रोताओं का उद्बोधन किया। जगन्नाथ के परमपावन सन्निधान में सद्गुरु की कल्याणकारी वाणी का लाभ पाने वाले वे सभी भक्तगण अत्यंत सौभाग्यशाली हैं।
माणिकनगर में प्रभु के आंगन में कोल की जो शोभा होती है वही शोभा, वही भव्यता रासप्रिय जगन्नाथ के सन्निधान में भी देखने को मिली। जिस आनंदघन सद्गुरु ने हमारे जीवन को सुख, समृद्धि और प्रसन्नता से भर दिया हो उस सच्चिदानंद की आराधना तभी हो सकती है जब हम उन आनंददायी चरणकमलों को अपने हृदय के आनंदप्रवाह से अभिषिक्त कर उस आनंद को सर्वत्र प्रसृत करें। असीम आनंद को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करना जब असंभव हो जाता है, तब वह आनंदमग्न व्यक्ति नाचने-गाने लगता है, हंसने-रोने लगता है। लोग उसे पागल कहते हैं, उस पर हंसते हैं परंतु वह भक्त जिस आनंद का अनुभव पा रहा होता है उस आनंद को केवल तभी जाना जा सकता है जब हम भी उसीकी तरह पागल बनें। ‘‘किति वर्णू मी सुख हे अहाहा। संगीत साम हा ऊ हा। धन्य धन्य बोधक गुरु हा। मिठि घालिन मी परशिवघनरूपाला। ज्ञानरूप मार्तांडाला॥’’ हमारे सद्गुरु की रचनाओं को गाने में और उन गीतों के ताल से ताल मिलाकर नाचने में जो सुख है, वह स्वर्ग और वैकुंठ के सुख से कईं गुना अधिक श्रेष्ठ है। माणिकनगर के समस्त प्रभुभक्तों ने इस अद्भुत भजनानंद क्रीड़ा से, आयोजन की शोभा कईं गुना ब़ढ़ा दी।
कार्यक्रम के अंत में श्री आनंदराज जी ने अपना मनोगत व्यक्त करते हुए अत्यंत सुंदर भाषण किया। सभी यात्रियों को श्रीजी ने महाप्रसाद देकर अनुग्रहित किया और इस प्रकार यह ऐतिहासिक एवं अविस्मरणीय यात्रा अत्यंत भव्य-दिव्यरीति से संपन्न हुई।
१४ अक्तूबर की सुबह सभी यात्रियों ने भुवनेश्वर के लिए प्रयाण किया। भुवनेश्वर के अत्यंत प्राचीन एवं ऐतिहासिक श्रीलिंगराज देवालय में जाकर श्रीजी सहित समस्त भक्त परिवार ने दर्शन एवं प्रसाद प्राप्त किया। मंदिर के प्रांगण में सद्भक्तों ने महाप्रसाद का लाभ लिया और वापसी की रेल यात्रा के लिए रेल्वे स्टेशन की ओर निकले।जगन्नाथस्वामी की परमपवित्र भूमि को अंतिम नमन करके सभी यात्रियों ने दोपहर ३ बजे भुवनेश्वर से हैदराबाद की ओर प्रस्थान किया।
तैयारियों के लिए मई के महीने में जब हम पुरी गए थे तब वहाँ के स्थानीय लोगों ने हमें बताया था, कि अक्तूबर के महीने में पुरी प्रांत में जोरदार बारिश रहती है। इस बात को ध्यान में रखकर हमने भी नियोजन के संदर्भ में कुछ पूर्व तैयारियाँ की हुईं थीं। पुरी के लिए निकलने के एक दिन पूर्व जब हमने पुरी के लोगों से वहाँ के मौसम का हाल जाना और पता चला कि वहाँ लगातार वर्षा हो रही है। सिकंदराबाद से जब हम निकले तो पूरे रास्ते में बारिश थी। सारे व्यवस्थापक बड़े चिंतित थे, कि इसी तरह बारिश होती रही तो अनेक समस्याएँ हो सकती हैं। परंतु प्रभु की कृपा से जहाँ हम उतरे वहाँ, खोर्धा स्टेशन पर बिल्कुल बारिश नहीं थी। वहाँ का वातावरण देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई लेकिन मन में डर बना हुआ था, कि कहीं अगले ३-४ दिनों तक पुरी में बारिश न हो। जगन्नाथ का चमत्कार देखिए, कि संपूर्ण कार्यक्रम के दौरान पुरी का नभमंडल निरभ्र था और तेज़ धुप छाई हुई थी। लेकिन कार्यक्रम के समापन के बाद जब हम भुवनेश्वर से निकले तभी सारे प्रदेश में बारिश ने कहर मचा दिया। केवल देखने मात्र से चमत्कार नहीं दिखते, उन्हें अनुभव करना पड़ता है।
यात्रा के दौरान समस्त यात्रियों ने सभी नियमों तथा समय का अत्यंत अनुशानबद्धरीति से पालन किया। विनय, संयम और अनुशासन से व्यवस्थापकों के साथ अत्यंत उत्तम सहकार्य करके सभी यात्रियों ने आयोजन को अभूतपूर्व सफलता प्रदान की। भक्ति और श्रद्धा के साथ अत्यंत स्नेहपूर्वक यात्रा में सम्मिलित हुए सभी यात्रियों का हम प्रभुसंस्थान की ओर से हार्दिक अभिनंदन करते हैं।
१५ तारीख की शाम को गुलबर्गा रेलवे स्टेशन पर उतरकर यात्री हुमनाबाद पहुँचे। हुमनाबाद रेल्वे स्टेशन पर हुमनाबाद के अनेक गणमान्य नागरिकों ने पुष्पमालाओं से श्रीजी का स्वागत किया। हुमनाबाद से माणिकनगर के मार्ग में विविध स्थानों पर श्रीजी के वाहन को रोककर प्रतिष्ठित नगरवासियों ने तथा भक्तजनों ने श्रीजी का स्वागत किया। माणिकनगर वासियों ने अत्यंत भव्य स्वागत समारंभ का आयोजन किया था। हुमनाबाद स्थित महाद्वार से लेकर माणिकनगर तक नवयुवकों द्वारा जयकारों के बीच श्रीजी का आगमन हुआ। ढोल-ताशों की गड़गड़ाहट के बीच श्रीजी ने क्षेत्ररक्षक श्रीकालाग्निरुद्र हनुमान की आरती संपन्न की और प्रभुमंदिर की ओर निकले। श्रीजी के आगमन से सारे तरु पल्लव प्रफुल्लित थे। गुरुगंगा को छूकर निकलती हुई सर्द हवा के वात्सल्यमय झोंके से माणिकनगर ने श्रीजी का स्वागत किया। आरती के सुसज्जित थाल, नभमंडल में आतिशबाजी की चकाचौंध, पुष्पवृष्टि, वाद्यों की गूंज, और लोगों की भीड़ से महाद्वार के प्रांगण में उत्सव का वातावरण छाया हुआ था। महाद्वार से अंदर प्रवेश करने के बाद जैसे ही प्रभुमंदिर के शिखर के दर्शन हुए हमारी सारी थकान क्षणभर में मिट गई। नौ सीढ़ियाँ चढ़कर श्रीजी ने यात्रियों के साथ प्रभु मंदिर में प्रवेश किया। ‘‘मुक्ति भुवन सुर प्रयाग गंगा। तूचि आह्मा त्रिपदी आणि काशी।।’’ इन्हीं नौ सीढ़ियों के ऊपर स्थित जो परमपावन सन्निधान है वहीं पर हमारी काशी, मथुरा, पुरी और रामेश्वरादि सकलतीर्थ बसते हैं। हमारी प्रतीक्षा में प्रभुमहाराज अत्यंत प्रसन्नमुद्रा में विराजित थे। 800 भक्तों से भरे हुए रथ को खींचकर सभी के योगक्षेम का वहन करते हुए पुरी की यात्रा करवाकर हमें सुखरूप वापस लेकर आने वाले प्रभुमहाराज, इतने प्रचंड कार्य को पूर्ण करने के बाद भी अकर्ता की तरह अलिप्तभाव से बैठे हुए थे। जैसे उन्होंने कुछ किया ही न हो! श्रीजी ने श्रीप्रभु की आरती की और अवधूत चिंतन के जयघोष के साथ इस अद्वितीय यात्रा का समापन हुआ।
[social_warfare]
SRI SADGURU MANIK PRABHU MAHARAJ KI JAI
श्री चैतन्यराज प्रभु जेव्हा चालक म्हणुन रथावर आरुढ असतात त्या वेळी रथाची गती फक्त तोच जाणु शकतो याचे वारंवार दर्शन या यात्रेत घडले. जय गुरु माणिक🙏
सुंदर प्रवास, सुंदर चित्रण आणि प्रत्येकाला संपुर्ण आनंद. धन्यवाद जय गुरु माणिक🙏
खुप सुंदर प्रवास वर्णन….. वाचताना हा लेख संपूच नये असे वाटत होते…. जय गुरू माणिक…
It’s a very good and well organized tour … Thank you so much
Jai guru manik🙏