दरस दे प्रभु दरस दे ।

गेल्या वर्षभरात करोनाच्या वाढत्या प्रादुर्भावामुळे अथवा स्वतः किंवा जवळचे कोणी संक्रमित झाल्यामुळे माणिकनगरला येण्याच्या अनेक संधी हुकल्या. ठरवलेले बेत रद्द करावे लागले, काढलेली तिकिटे रद्द करावी लागली. प्रभु नगरी येऊन प्रभु सेवा करण्याच्या संधी हातातून अचानक निसटून गेल्या. आता तिथे वेदांत उत्सव चालू असताना ह्याची सल अधिकच जाणवते आहे. ही परिस्थिती लवकरात लवकर सुधारून माणिकनगरला येण्याचा लवकरच योग यावा अशी विनम्र प्रार्थना करीत ही कविता प्रभु चरणी अर्पण करते.

विरह-वेला में व्यथित मन

तव स्मरण में है मगन ।

दरस दे प्रभु दरस दे ।।

 

चरण सेवा का सुअवसर

मुझे शीघ्र प्रदान कर ।

दरस दे प्रभु दरस दे।।

 

आ सकूं मैं तेरे द्वारे

नष्ट हों अब विघ्न सारे ।

दरस दे प्रभु दरस दे।।

 

कान मेंरे नित तरसते

भजन की धुन सुरस दे।

दरस दे प्रभु दरस दे।।

 

तव चरण में शीश मेरा

हो सदा आशीष तेरा ।

दरस दे प्रभु दरस दे।।

ज्ञानाकृति सच्चित्सुख प्रभु की

(कार्तिक कृ. सप्तमी – श्री सद्गुरु ज्ञानराज माणिकप्रभु महाराज की ६२वीं जयंती के उपलक्ष में)

ज्ञानाकृति सच्चित्सुख प्रभु की
प्राप्त हमें है सगुण सुलभ।
पुण्य हुए हैं आज फलित जो
मिलाज्ञानआश्रय दुर्लभ।।

ज्ञानपुंज सद्गुरू हमारे
सच्चित्सुख औै ब्रह्मनिष्ठ।
तव वाणी के ही प्रभाव से
होते सब विचार सुस्पष्ट।।

ज्ञानदीप के इस प्रकाश से
दीप्त हमारा है संसार।
प्रदीप्त हैं चित्तबुद्धि के
वृत्ति, स्फूर्ति भाव, विचार।।

ज्ञानामृत के महाउदधि तुम
एक बूँद भवताप हरे।
सतत पान से शमित हो रही
ज्ञानतृषा धीरे धीरे।।

ज्ञानसूर्य तुम सदा उदित
तव किरणों से हम सब पुनीत।
जन्मदिवस के अवसर पर तव
चरणों में हम सब विनीत।।

ज्ञानरूप कर लो स्वीकृत
निज भक्तों का यह मृदुल भाव।
तर जाए भवसागर से अब
सकुशल हम भक्तों की नाव।।