श्री शंकर माणिकप्रभु महाराज के काल में हुमनाबाद में गुंडप्पा नामक बहुत बडे व्यापारी रहते थे। गुंडप्पा श्री प्रभु संस्थान के अभिमानी सद्भक्त थे। जब भी संस्थान में कोई आर्थिक अडचन आती थी, तब महाराजश्री किसी सेवक को हुमनाबाद के बाजार में गुंडप्पा सेठ के पास भेज देते थे और गुंडप्पा साहुकार भी अविलंब अत्यंत उदारतापूर्वक धन की व्यवस्था कर देते थे। ऐसा कभी नहीं हुआ कि महाराजश्री किसी व्यक्ति को साहुकार के पास भेजें और वह व्यक्ति खाली हाथ लौट आए। एक बार किसी कार्य के लिए ३००० रुपयों की आवश्यकता पडी, तो श्रीजी ने संस्थान के एक व्यक्ति को गुंडप्पा साहुकार के पास भेजा। उस वर्ष व्यापार में नुकसान होने के कारण तंगी चल रही थी और साहुकार के पास पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं था। उस व्यक्ति ने जब श्रीजी को साहुकार की मजबूरी सुनाई, तब श्रीजी ने तुरंत उसी व्यक्ति को एक चिट्ठी देकर राजेश्वर ग्राम के किसी साहुकार के पास जाने को कहा और बोले कि राजेश्वर के साहुकार से ३००० रूपये लाकर गुंडप्पा सेठ को दे दो और फिर वही ३००० रु तुम उनसे लेकर मेरे पास आ जाओ जिससे बाजार में हमारे साहुकार का सर पहले जैसा ऊंचा ही रहेगा। वरना लोग उपहास करेंगे, कहेंगे ‘‘माणिकप्रभु का भक्त कंगाल हो गया। उसका दीवाला निकल गया। मैं नहीं चाहता कि बाजार में साहुकार के मान को ठेस पहुंचे।’’ महाराजश्री के निर्देशानुसार वह व्यक्ति राजेश्वर से धन लेकर गुंडप्पा साहुकार के पास पहुंचा और साहुकार को श्रीजी की यह योजना बताई तो वे अपने आंसुओं को नहीं रोक पाए। गुंडप्पा साहुकार सीधे माणिकनगर आए और उन्होंने महाराजश्री के चरणों को अपनी अश्रुधारा से धो डाला। जब भक्त के सम्मान की बात आती है तब सद्गुरु कैसे तत्परता से उस भक्त के सम्मान का रक्षण करते हैं, यह हमें इस अद्भुत प्रसंग से देखने को मिलता है। इस घटना के बाद, प्रभुचरणों में साहुकार की निष्ठा अधिक दृढ़ हुई और उन्होंने आजीवन अत्यंत निष्ठा के साथ प्रभुसेवा के व्रत को निभाया।
माघ कृष्ण प्रतिपदा का दत्त संप्रदाय में अनन्यसाधारण महत्व है। आज के परम पवित्र पर्व पर ही भगवान् श्री दत्तात्रेय के द्वितीय अवतार श्री नृसिंह सरस्वती स्वामी महाराज का श्रीशैल के अरण्य में निजानंद गमन हुआ था। माणिकनगर में प्रतिवर्ष गुरु प्रतिपदा के अवसर पर पूजा आदि कार्यक्रम विधिवत् संपन्न किए जाते हैं। आज श्रीगुरु प्रतिपदा के अवसर पर भगवान् श्री दत्तात्रेय के मंदिर में महापूजा संपन्न की गई। इस महापूजा के अंतर्गत प्रभु मंदिर परिसर में स्थित प्राचीन औदुंबर वृक्ष की भी आरती तथा पूजा संपन्न हुई। महापूजा के समय भक्तजनों ने सांप्रदायिक भजन का आयोजन किया। पूजा के उपरांत भक्तजनों ने भंडारखाने में महाप्रसाद का लाभ लिया।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का दिन श्रीसंस्थान के इतिहास में तथा श्री सद्गुरु सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज के जीवन में एक अनूठा महत्व रखता है। आज से ५५ वर्ष पूर्व, जन्माष्टमी के एक अत्यंत अद्भुत प्रसंग का उल्लेख यहाँ हम कर रहे हैं। यह घटना प्रभुमहाराज की त्रिकालाबाधित सत्ता, सद्गुरु की महिमा, तथा भक्त के सामर्थ्य को दर्शाने वाली अत्यंत अद्भुत घटना है। इसलिए केवल वही इस कथा को समझ सकते हैं, जिनका हृदय श्रद्धा एवं भक्ति से सिक्त हो।
यह प्रसंग है सन् १९६५ का, जब श्रीप्रभु के महिमा मंडित सिंहासन पर श्री सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज आसीन थे। सन् 1945 में श्री शंकर माणिकप्रभु महाराज की समाधि के बाद 6 वर्ष की आयु में ही श्रीजी ने श्रीसंस्थान की बागडोर अपने कोमल हाथों में थामी थी। आज विद्यमान् श्री संस्थान का यह भव्य-दिव्य रूप इन्हीं कोमल हाथों के सामर्थ्य का अद्भुत परिणाम है। सन् 1945 में श्रीजी केवल 6 वर्ष के थे और श्री शंकर माणिकप्रभु महाराज के अकाल देहावसान के कारण किसी प्रकार की कोई विधिवत् मंत्र दीक्षा श्रीजी को अपने पिता (सद्गुरु) से नहीं मिल पाई थी और उस समय उनका उपनयन भी नहीं हुआ था। ऐसी विकट परिस्थिति में श्रीजी पीठासीन हुए थे।
वर्ष 1965 का श्रावणमास महोत्सव माणिकनगर में उत्साह के साथ मनाया जा रहा था। प्रतिदिन श्रीजी श्री प्रभु मंदिर में रुद्राभिषेक, सहस्र बिल्वार्चन, सकलदेवता दर्शन और नित्य भजन आदि कार्यक्रम के बाद घर लौटकर प्रसाद ग्रहण करते थे। शाम के समय प्रदोषपूजा के बाद भोजन होने में कभी-कभी रात के 11-12 भी बज जाते थे। दिनांक 19 अगस्त की रात श्रीजी ने गुरुवार की प्रदोष पूजा संपन्न की और भोजन आदि कार्यक्रमों के बाद अपने कक्ष में आराम करने चले गए। शुक्रवार 20 अगस्त 1965 की श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को प्रातःकाल में ब्रह्म मुहूर्त पर श्रीजी के स्वप्न में श्री शंकर माणिकप्रभु महाराज प्रगट हुए। श्री शंकर माणिकप्रभु महाराज ने श्रीजी के कानों में गुरु मंत्र का उपदेश दिया और वहीं वह अलौकिक स्वप्न समाप्त हुआ।
आकाश में पूर्व क्षितिज पर सूर्योदय का संकेत देने वाली लाली छायी हुई थी। माणिकनगर अभी निद्राधीन था परंतु श्रीजी को अब सूर्योदय की प्रतीक्षा नहीं थी, क्योंकि सद्गुरु की कृपा का सूर्योदय तो हो चुका था। उस दिव्य अनुभूति को पाकर श्रीजी कुछ क्षणों के लिए परमानंद में लीन हुए। मंत्र के शब्द श्रीजी के कानों में सतत गूँज रहे थे। फिर श्रीजी ने शीघ्रता से स्नान संध्यादि नित्यक्रम संपन्न किए और प्रभु के तत्कालीन मुख्य अर्चक स्व. श्री पुरुषोत्तम शास्त्री को बुलवाकर स्वप्न की घटना का उल्लेख किया। श्री पुरुषोत्तम शास्त्री ने श्री भीमभट, श्री दत्त दीक्षित, श्री गोविंद दीक्षित आदि पंडितों से चर्चा कर श्रीजी को स्वप्न में प्राप्त मंत्र को श्री शंकर माणिकप्रभु महाराज की समाधि के समक्ष शास्त्रोक्त विधान से ग्रहण करने का प्रबंध किया। श्रीप्रभु की श्रावणमास की महापूजा संपन्न कर श्रीजी, श्री शंकर माणिकप्रभु महाराज के समाधि मंदिर में गए। वहाँ महाराजश्री ने समाधि की महापूजा संपन्न की और स्वप्न में प्राप्त मंत्र को समाधि के समक्ष दोहराकर उसे पुनः विधिवत् स्वीकार किया। इस प्रकार महाराजश्री को जन्माष्टमी के पर्व पर उनके सदगुरु श्री शंकर माणिकप्रभु महाराज ने गुरुमंत्र से अनुग्रहित किया।
भक्त के श्रेष्ठ गुणों से प्रभावित होकर भगवान् अपने भक्त के लिए असंभव को भी संभव करने पर विवश हो जाते हैं। भगवान् ने स्वयं ‘अहं भक्त पराधीनः’ कहकर इस बात को स्पष्ट किया है। गुरुकृपा की यह कथा हमारे हृदय को पुनीत करने के साथ-साथ यह संदेश भी देती है, कि निष्काम भक्ति ही भगवत्प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग है और हमें इसी मार्ग का निष्ठापूर्वक अनुकरण करना चाहिए।
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