सन् १९७६-७७ के फरवरी महीने की बात है। सुबह के लगभग ६ बज रहे थे। प्रभु मंदिर से किसी के गायन की आवज़ से श्रीज्ञानराज जी नींद से जागे और मंदिर के पहरेदार को बुलवाकर उससे उन्होंने पूछा कि, इतनी सुबह मंदिर में कौन गा रहा है? पहरेदार उस कलाकार को नहीं पहचानता था। ज्ञानराज जी स्वयं मंदिर में गए और वहॉं पर कैलास मंटप में पंडित जसराज जी को गायन में मग्न देखकर आश्चर्यचकित रह गए। ‘‘इतने बड़े कलाकार! बिना किसी पूर्वसूचना के ऐसे कैसे यहॉं अचानक पहुँच गए?’’ ज्ञानराजजी ने बिना किसी विलंब के पंडितजी का यथोचित स्वागत किया और उन्हें आदर पूर्वक श्री सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज के पास बैठक में ले आए। महाराजश्री से बात करते समय इस तरह अचानक आने का कारण बताते हुए पंडितजी बोले – ‘‘मैंने अपने बुजुर्गों से माणिकनगर के विषय में बहुत सुन रखा था और इसलिए मुंबई से हैदराबाद प्रवास करते समय मेरे मन में प्रभुदर्शन की तीव्र इच्छा जाग्रत हुई और मैं सीधे माणिकनगर आ गया। यहॉं पर मेरा किसी से परिचय न होने के कारण मैं आने से पहले किसी से संपर्क भी न कर सका। जब मैं माणिकनगर में आया तब यहॉं गायन करने का मेरा कोई विचार नहीं था, बस दर्शन लेकर लौटने वाला था परंतु जब मैं मंदिर में आया तब इस परिसर की शांति, यहॉं की दिव्यता और वातावरण की प्रसन्नता ने मुझे इतना प्रभावित किया, कि मैं विवश होकर गाने के लिए बैठ गया।’’ महाराजश्री के बैठक में पंडितजी ने महाराजश्री के समक्ष पुनः संगीत सेवा की और कुछ देर यहॉं बिताकर उन्होंने हैदराबाद के लिए प्रयाण किया।
१७ अगस्त को पंडित जसराज का दुखद निधन हुआ। पंडितजी के पिताश्री पंडित मोतीरामजी के काल से ही उनका परिवार श्रीसंस्थान से जुड़ा हुआ है। पंडितजी के बंधु पंडित मणिराम, तथा पंडित प्रताप नारायण ने भी माणिकनगर के संगीत दरबार में विविध कार्यक्रमों में अनेक बार अपनी हाज़री लगाई है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए पंडित जसराज ने श्रीप्रभु संस्थान से अपने संबंधों को और दृढ़ता प्रदान की। माणिकनगर की महान संगीत परंपरा से तो पंडितजी परिचित थे ही परंतु यहॉं का दिव्य आध्यात्मिक वातावरण उन्हें विशेषरूप से आकृष्ट करता था। मुंबई से हैदराबाद आते-जाते समय पंडितजी अक्सर माणिकनगर पर रुकते और प्रभु दर्शन लेकर ही आगे जाते थे। यहॉं आने के लिए वे किसी विशेष निमंत्रण की राह नहीं देखते थे क्योंकि माणिकनगर पंडितजी के लिए अपने घर से अलग नहीं था। श्री सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज, पंडितजी की गायकी को बहुत पसंद किया करते थे। पंडितजी जब भी माणिकनगर आते, महाराजश्री के सामने बड़ी निष्ठा के साथ अपनी सेवा प्रस्तुत करते थे। वे जब महाराजश्री के सम्मुख हाज़री लगाने के लिए बैठते थे, तो सभी व्यस्तताओं को तथा समय की पाबंदियों को भुलाकर गाने में तल्लीन हो जाया करते थे। महाराजश्री अक्सर पंडितजी से अपने किसी पसंदीदा राग की फरमाइश जब करते थे तब भले ही वह राग उस समय का हो चाहे ना हो, पंडितजी अपनी कला से सभा को मंत्रमुग्ध कर देते थे। जब भी पंडितजी माणिकनगर आते थे तो संगीत सेवा के बाद महाराजश्री के पंगत में प्रसाद लेकर, महाराजश्री की अनुज्ञा पाकर ही माणिकनगर से प्रयाण करते थे।
सन् १९८३ में बीदर में श्री सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज की अध्यक्षता में हैदराबाद कर्नाटक संगीत सभा द्वारा आयोजित समारोह में पंडित जसराज जब महाराजश्री से मिले तब महाराजश्री ने उन्हें ‘‘आइये पंडितजी’’ कहकर संबोधित किया तभी पंडितजी महाराजश्री की बात को बीच में काटते हुए बोले ‘‘महाराज, मैं भले ही इन सभी लोगों के लिए पंडित हूँ पर आपके लिए मैं सदा जसराज ही रहूँगा। तो कृपा करके इस बंदे को आप जसराज ही बुलाऍं।’’ सत्य ही है कि, व्यक्ति की पहचान उसकी विद्वत्ता से नहीं बल्कि उसकी विनम्रता से होती है। गुणिजनों के समूह में अपने इसी गुण के कारण पंडितजी अपनी अलग पहचान बनाने में सफल हुए यह हम सब जानते हैं।
सन् १९८६ में श्री मार्तंड माणिकप्रभु निर्याण अर्ध शताब्दि महोत्सव के संगीत समारोह में उस्ताद अल्लाहरक्खा, पं. जीतेंद्र अभिषेकी, वि. प्रभा अत्रे तथा वि. मालिनी राजूरकर जैसे भारत के दिग्गज कलाकारों ने प्रभु चरणों में संगीत सेवा प्रस्तुत की थी। इस महोत्सव में पंडितजी को भी आग्रहपूर्वक निमंत्रित किया गया था। विशेष बात यह है, कि कार्यक्रम के दिन सुबह के समय पंडितजी ने इच्छा व्यक्त की, कि उन्हें पहले श्री मार्तंड माणिकप्रभु महाराज के समाधि के सामने बैठकर सेवा करनी है। वहॉं उस समय किसी प्रकार की कोई तयारी नहीं थी। न माइक्रोफोन, न साथी कलाकार, न हार्मोनियम न तबला। पंडितजी ने व्यवस्थापकों को कालीन बिछाने तक का मौका नही दिया। ठंडे संगेमरमरी फर्श पर बैठे और खुद तानपुरा बजाते हुए गाना आरंभ कर दिया। ‘प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो’ यह बंदिश पंडितजी ने श्री मार्तंड माणिकप्रभु महाराज की सेवा में प्रस्तुत की। शाम की सभा में पंडितजी ने राग बिहागडा में ‘ये आली री अलबेली’ मेवाती घराने की यह पारंपरिक बंदिश प्रस्तुत की। इस सभा में पंडितजी ने महाराजश्री से कुछ फरमाइश करने की प्रार्थना की तब महाराजश्री ने उनसे अडाना राग पर आधारित ‘माता कालिका’ गाने को कहा। उस कार्यक्रम में जिन्होंने पंडितजी को सुना वे बताते हैं, कि पंडितजी ने लोगों पर ऐसा ज़बरदस्त जादू कर दिया था, कि आज भी उस बंदिश के स्वर, वे तानें श्रोताओं के मस्तिष्क में गूंज रही हैं। आज इस प्रांत में कुछ ऐसे भी संगीतकार हैं जिन्हें संगीत सीखने की प्रेरणा ही उस दिन के कार्यक्रम से मिली। स्वयं पंडितजी ने उस दिन कार्यक्रम के बाद महाराजश्री से कहा था, कि ‘‘प्रभु के दरबार में गाने से मुझे जैसी तसल्ली मिलती है, वह और कहीं नहीं मिलती।’’ इतना कहकर पंडितजी ने स्वयं महाराजश्री के दाहिने हाथ को अपनी ओर खींचा और अपने सर पर रख लिया। महाराजश्री ने उस दिन पंडितजी को श्रीप्रभु समाधि के दिव्य महावस्त्र से सन्मानित किया था। पंडितजी के मन में श्री सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज के प्रति असीम आदर और श्रद्धा की भावना थी और प्रभुचरणों में उनकी वही आसक्ति उन्हें बार-बार माणिकगर की ओर आकृष्ट करती रही। संगीत को केवल कला तक सीमित न रखते हुए पंडितजी ने संगीत को आध्यात्मिक साधना के रूप में अपनाया और वही शिक्षा अपने चेलों को भी दी। उसी साधना का प्रभाव पंडितजी की कला में भी स्पष्टरूप से दिखता है। विश्व भर में प्रसिद्धि और ख्याति पाने के बाद भी पंडितजी के अंदर जो सरलता और सहजता थी वह आज संगीत की आराधना करने वाले सभी साधकों के लिए अनुकरणीय है।
आज पंडित जसराज तो नहीं रहे परंतु रसिक श्रोताओं के मन पर उनके आवाज़ की छाप सदा के लिए रहने वाली है। हम श्री माणिकप्रभु संस्थान की ओर से पंडित जसराज को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए श्रीचरणों में प्रार्थना करते हैं, कि प्रभु उन्हें सद्गति प्रदान करें।
कालयुक्तिनाम संवत्सर श्रावण अमावास्या 7 सितंबर 1858 का मंगलमय दिवस उदित हुआ और माणिकनगर की धरती सूर्य की पहली किरण के स्पर्श से पुलकित हो गई। वह दिन श्रावणमास उत्सव का अंतिम दिन था। घनघोर मेघों से ढका हुआ सूर्य माणिक नगर की धरती पर अवतरित होने वाले महायोगी के प्रथम दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो रहा था।
सौ. विठाबाई अम्मा के गर्भ को नवमास संपूर्ण होकर 10 दिन बीत चुके थे परंतु प्रसूति के कोई चिह्न नहीं दिख रहे थे। विठाबाई अम्मा अत्यंत अस्वस्थ थीं। उनकी यह अवस्था देखकर घर के लोगों ने श्रीप्रभु से इस समस्या को सुलझाने की प्रार्थना की। श्रीप्रभु जब अपनी भ्रातृवधु विठाबाई को देखने के लिए घर में आए तब उन्हें प्राणांतक वेदनाएँ हो रही थीं। यह देखकर श्रीप्रभु उनके के पास गए और गर्भस्थ शिशु को संबोधित करते हुए बोले “अपनी माता को इस प्रकार पीड़ा देना उचित नहीं है। तुम्हे जन्म लेना ही होगा। मैं तुम्हे यह आश्वासन दता हूँ कि तुमसे सांसारिक बंधनों को स्वीकार करने के लिए किसी भी प्रकार का आग्रह नहीं किया जाएगा। जिस दिव्य कार्य के लिए तुम अवतार ले रहे हो उस कार्य में किसी भी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लाया जाएगा। तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा हो रही है, अत: शीघ्र प्रगट हो जाओ।” श्रीप्रभु के इस आदेश के कुछ ही क्षणों बाद विठाबाई अम्मा के गर्भ से एक दिव्य पुत्र का जन्म हुआ।
तया उदरी अत्रि अंश आला। मनोहर नामें गुरु अवतरला। अगा या ब्रह्मचर्यव्रताला। आधार जो॥
उस बालक के मुखमंडल के प्रखर तेज से चारों दिशाएँ दीपित हो गईं। इस शुभ समाचार को सुनते ही माणिकनगर के लोंगों ने श्री नृसिंह तात्या महाराज के इस महातेजस्वी पुत्र का जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया। उस दिन ‘पोळा’ का त्योहार भी था और आस-पास के कस्बों से किसान अपने अपने सुसज्जित बैलों के जोड़ों के साथ प्रभुदर्शन के लिए माणिकनगर में एकत्रित हुए थे। वाद्यों की गड़गड़ाहट के बीच वृषभ-पूजन का कार्यक्रम चल रहा था। ढोल, नगाड़ों के भीषण कोलाहल से सारा माणिकनगर गूंज उठा था। नवजात शिशु के दर्शन के लिए भारी भीड़ उमड़ पड़ी। उस सद्योजात बालक ने अपने रूप लावण्य से दर्शनार्थियों के मन को हर लिया। अपने कटाक्षमात्र से भक्तजनों के मन का हरण करने वाले इसी बालयोगी को हम श्री सद्गुरु मनोहर माणिकप्रभु महाराज के नाम से जानते हैं।
आज श्री मनोहर माणिकप्रभु महाराज की 162वीं जयंती है। इस अवसर पर हम महाराजश्री के चरणों में अनंत कोटि नमन अर्पित करते हैं।
भगवती व्यंकम्मा की आराधना संस्थान के प्रमुख कार्यक्रमों में से एक है। आज से 158 वर्ष पूर्व दुंदुभिनाम संवत्सर – श्रावण वद्य त्रयोदशी शनिवार 23 अगस्त 1862 को देवी व्यंकम्मा ने जिस अद्भुत रीति से देहत्याग कर अमरत्व का वरण किया वह सभी प्रभुभक्तों के लिए एक अत्यंत विस्मयकारी घटना है। आज के दिन हम स्मरण करते हैं उस अद्भुत घटना का जिस घटना ने माणिकनगर के इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
श्री दत्तात्रेयांची शक्ती। नांवें असे जी मधुमती। तीच व्यंकम्मा भगवती। म्हणूनि मानिती प्रभुभक्त॥
सकलमत संप्रदाय में भगवती व्यंकम्मा की उपासना भगवान श्री दत्तात्रेय की मधुमती शक्ति के रूप में की जाती है। भगवती व्यंकम्मा आजीवन श्रीप्रभु चरणों की दासी बनी रहीं एवं उन्होंने अनन्य शरणागति एवं प्रभुसेवा का आदर्श स्थापित कर चित्सदानंद पद को प्राप्त किया।
अत्यंत कठोर तपस्या एवं श्रीप्रभुचरणों के प्रति अचंचला श्रद्धा के फलस्वरूप देवी व्यंकम्मा ने सद्गुरु की कृपा को संपादित किया था। समय-समय पर परीक्षाएँ लेकर श्रीप्रभु ने साध्वी व्यंकम्मा की भक्ति व श्रद्धा को परखा था। माणिकनगर ग्राम के बीचों-बीच स्थित हनुमान मंदिर के पास टेहळदास नाम का एक बैरागी और उसकी वृद्धा माता रहते थे। टेहळदास की वृद्धा माता को श्रीप्रभु से बहुत लगाव था और श्रीप्रभु भी उस बूढ़ी को अक्सर दर्शन देने के लिए झोपड़ी पर जाया करते थे। एक दिन जब श्रीप्रभु टेहळदास की कुटिया में थे, उस समय कुटिया में आग लग गई और देखते ही देखते आस पास की सारी झोपड़ियों को अग्नि ने झुलसा दिया। लोगों ने आग को बुझाने के लिए बहुत प्रयत्न किए परंतु विफल हुए। आस-पास के सारे लोग, शिष्य मंडली और तात्या महाराज सहित सारे ग्रामवासी शोकाकुल होकर रोने लगे, चारों ओर हाहाकार मच गया। इस संपूर्ण कोलाहल के बीच देवी व्यंकम्मा अत्यंत शांत मुद्रा में गहरी समाधि में लीन थीं। देवी व्यंकम्मा ने श्रीप्रभु के सच्चिदानंद स्वरूप को जाना था और वे श्रीप्रभु की लीला को, उनके खेल को भलीभांति समझती थीं। अस्तु इस बात का दृढ़ विश्वास देवी व्यंकम्मा को था कि श्रीप्रभु न आग से जल सकते हैं न पानी उन्हें भिगा सकता है – ‘नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।’ वे तो जन्म-मृत्यु-रहित साक्षात् परब्रह्म हैं। श्रीप्रभु ने देवी व्यंकम्मा की अंतिम परीक्षा ले ली थी। देवी व्यंकम्मा की ज्ञाननिष्ठा से प्रसन्न होकर श्रीप्रभु कुछ ही क्षणों में अपनी पीठ पर टेहळदास की माता को ढोए हुए व्यंकम्मा के सामने प्रगट हुए। समस्त जनता श्रीप्रभु को स्वस्थ देखकर हैरान रह गई। इस विचित्र घटना से जनमानस को देवी व्यंकम्मा की योग्यता का परिचय मिल गया।
कुछ दिनों के बाद श्रीप्रभु की आज्ञा से देवी ने अपनी चिरसमाधि का समय निश्चित किया। निश्चित तिथि के एक दिन पूर्व देवी ने रातभर अखंड भजन किया। बहुत देर तक भजन करती हुई नामस्मरण के आनंद में लीन देवी व्यंकम्मा भूमि पर गिर पड़ीं। अंतिम संस्कार के लिए जब देवी के सगे संबंधी उनके पार्थिव देह को उठाने के लिए गए तब देवी के देह से ॐकार की गूंज निकली। यह देखकर सब लोग डर गए और श्रीप्रभु के पास गए। वहाँ उपस्थित ब्राह्मण मंडली ने देवी व्यंकम्मा को श्रीप्रभु के चरणतीर्थ का प्राशन कराया। जिह्वा पर तीर्थ का स्पर्श होते ही उन्होंने उठकर पहले श्रीप्रभु के चरणों में वंदन किया और फिर विठाबाई अम्मा के चरणस्पर्श कर योगासन लगाकर पुनः अक्षय समाधि में लीन हो गईं और उन्होंने अपने भौतिक देह का त्याग कर दिया। श्रीप्रभु की अनुज्ञा से लोगों ने ‘अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त’ का घोष किया और देवी के पार्थिव शरीर को शिविका में बिठाकर समाधि स्थल की ओर ले गए। इस अंतिम यात्रा के समय देवी व्यंकम्मा ने देह पर शुभ्र वस्त्र, भाल पर चंदन, सर्वांग पर भस्म एवं कंठ में रुद्राक्ष भरण धारण किए हुए थे।
निजानंद में लीन देवी के कांतिमान मुख पर स्वात्मानंद का लावण्य छाया हुआ था। रास्ते में जगह-जगह पर लोगों ने वाद्यों की गड़गड़ाहट के बीच सुपारी, खजूर, नारियल, बतासे, अबीर, गुलाल, तुलसी और फूलों की बौछार से भक्तशिरोमणि देवी व्यंकम्मा को अपनी अंतिम श्रद्धांजलि समर्पित की। श्रीप्रभु ने सेवकों द्वारा शास्त्रोक्त विधि से समाधि की प्रक्रिया को संपूर्ण करवाया और स्वयं अपने हाथों से भक्तजनों में प्रसाद का वितरण किया। उस समय पर किसी भक्त ने श्रीप्रभु के समक्ष श्रीदेवी व्यंकम्मा के समाधि मंदिर के निर्माण का विषय निकाला तो श्रीप्रभु ने कहा “जब उसे मंदिर बनवाना होगा तब वह अपने सामर्थ्य के बल पर मंदिर का निर्माण अवश्य करवाएगी। हमें उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए।” सन् 1862 की श्रावण वद्य त्रयोदशी को भगवती व्यंकम्मा ने अपने सगुण रूप को आच्छादित किया एवं इस प्रकार माया ब्रह्म में लीन हो गई।
आज माणिकनगर में भगवती व्यंकम्मा का समाधि मंदिर एक शक्तिपीठ की भाँति संपूजित है। यहाँ भगवती व्यंकम्मा गुरुभक्तों पर कृपा कर तत्परता से उनकी मनोकामना पूर्ण करने के लिए भगवती मधुमती श्यामला का रूप धरकर बैठी हैं। श्री मार्तंड माणिक प्रभु महाराज के शब्दों में
पद्मासनी शुभ शांत मुद्रा शुभ्रांबर कटि कसली हो। परमप्रिय गुरुभक्ता सुखकर वर देण्या ही सजली हो।।
दुंदुभिनाम संवत्सर – श्रावण कृष्ण चतुर्थी – बुधवार, १३ ऑगस्ट १८६२
आज श्री नृसिंह तात्या महाराज की पुण्यतिथि है। श्रावण वद्य चतुर्थी का दिन हमें महाराजश्री की महान् प्रभुसेवा का स्मरण कराता है। श्रीप्रभु के अनुज श्री नृसिंह तात्या महाराज ने माणिकनगर की स्थापना तथा संप्रदाय के गठन में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। श्रीप्रभु के स्वरूप का वर्णन करनेवाली ‘भक्तकार्यकल्पद्रुम’ ब्रीदावली का स्फुरण श्री तात्या महाराज को ही हुआ था। सातवारों के भजनों के क्रम का संकलन तथा संपादन भी महाराजश्री ने ही किया था, वह परंपरा आज भी श्रीसंस्थान में उसी रीति से चल रही है। महाराजश्री का वेदांत शास्त्र पर असाधारण प्रभुत्व था और फिर उन्हें साक्षात् प्रभु महाराज का सान्निध्य व मार्गदर्शन प्राप्त होने के कारण ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’ इस श्रुति वाक्य के अनुसार श्री तात्या महाराज सदैव ब्रह्मानंद में लीन रहते थे। महाराजश्री के दिव्य व्यक्तित्व की छाप, उनके उभय पुत्र श्री मनोहर माणिकप्रभु व श्री मार्तंड माणिकप्रभु पर बड़ी गहराई से पड़ी थी। श्री नृसिंह तात्या महाराज का वर्णन ‘श्री गुरु संप्रदाय’ में इस प्रकार आया है:
पुढे विधिअंश नृसिंह झाला। जो हठयोग प्रगटविला। गुरूपदेश क्रमाला। मूल जो॥ गुरुदेवाचें भजन। गुरु संप्रदाय खूण। ज्ञानशिखादि ग्रंथ पूर्ण। जो निर्माण करी॥
श्री नृसिंह तात्या महाराज ने गुरुगीता पर मराठी में ‘ज्ञान शिखा’ नामक अत्यंत समर्पक और अनुपम ऐसा भाष्य लिखा है। उस भाष्य को महाराजश्री ने प्रभु महाराज को दिखाकर उसपर श्रीप्रभु के आशीर्वाद प्राप्त किए थे इसलिए सांप्रदायिक शिष्यों के लिए ज्ञान शिखा का अनन्यसाधारण महत्व है।
श्री नृसिंह तात्या महाराज ने जीवनभर श्रीप्रभुचरणों की सेवा की एवं अंत में परमपद को प्राप्त हुए।
अपने ज्येष्ठ बंधु श्री हनुमंत दादा महाराज एवं माता बयाम्मा के निर्याण के बाद तात्या महाराज तीव्र वैराग्य की भावना को मन में लिए श्रीप्रभु की शरण में गए। अंतर्यामी श्रीप्रभु तात्या के मन की विडंबना को जानकर बड़ी प्रसन्नता से बोले “तात्या, तुम योगिनी व्यंकम्मा की शरण में जाओ, वहीं तुम्हारे प्रश्नों का समाधान मिलेगा।” श्रीप्रभु की आज्ञानुसार तात्या महाराज व्यंकम्मा देवी की शरण में गए। देवी व्यंकम्मा ने तात्या महाराज की मनोदशा को जानकर उनका योग्य मार्गदर्शन किया।
देवी के इस उपदेशामृत का पान कर तात्या महाराज का चित्त शांत हुआ और उनके मन को एक अलौकिक समाधान प्राप्त हुआ। सद्गदित होकर कृतज्ञतापूर्वक वे देवी के चरणों में नत मस्तक हुए।
इस दिव्यानुभूति के पश्चात् तात्या महाराज श्रीप्रभु के पास गए। अपने बंधु के मुख पर छाई अद्भुत कांति को देख बड़ी प्रसन्नता से श्रीप्रभु ने तात्या महाराज के मस्तक पर अपना वरदहस्त रखा। तब से श्री तात्या महाराज अखंड ब्रह्माकारवृत्ति में अवस्थित हो गए।
इसके बाद कुछ दिनों तक निरंतररूप से तात्या महाराज ने श्रीप्रभु की कुटिया में श्रीप्रभु के साथ एकांत में समय व्यतीत किया। इस अखंड एकांत के बाद तात्या महाराज ने श्रीगुरुचरित्र का पारायण सत्र संपन्न किया। बृहत् प्रमाण में दान सत्र का आयोजन कर कुछ विशेष अनुष्ठानों को संपन्न किया। वे भजन पूजनादि विविध धार्मिक कार्यों में व्यस्त हो गए।
समाधि की नियोजित तिथि पर निजधाम की यात्रा पर निकलने से पहले तात्या महाराज ने बड़े आनंद के साथ सभी प्रियजनों को विदा किया और सद्गदित होकर श्रीप्रभु के चरणों में अपना मस्तक रख दिया। ठीक श्रीप्रभु के सम्मुख तात्या महाराज ने आसन लगाया। उपस्थित भक्तजनों ने ‘भक्तकार्यकल्पद्रुम’ का घोष प्रारंभ किया, झांज, मृदंग के नाद से माणिकनगर का आकाश भर गया। श्रीप्रभु ने अपने सेवक लंगोटी रामा को संबोधित करते हुए कहा – “तात्या को मुक्त करने का समय आ गया है।” ऐसा कहकर श्रीप्रभु ने तात्या महाराज के दाहिने पाँव का अंगूठा दबाया और प्राण को नाभिकमल (मणिपूर चक्र) में ले गए। तात्या से श्रीप्रभु बोले “तात्या तुम धीरज रखो, अपनी दृष्टि को नासाग्र पर स्थिर करो और किंचित् भी विचलित न होते हुए प्रणव का जप करो।” क्षणार्ध में तात्या महाराज के प्राणों ने ब्रह्मरंध्र का भेदन किया और वे अपने चित्स्वरूप में लीन हो गए।
भक्तजन तात्या महाराज के पर्थिव देह को भजन और जयघोष के बीच संगम ले गए। निज़ाम राज्य के प्रतिनिधियों ने वहाँ उपस्थित रहकर सरकारी सम्मान एवं गौरव के साथ बंदूकों की सलामी दी। श्रीप्रभु के मार्गदर्शन में श्री तात्या महाराज के ज्येष्ठ पुत्र श्री मनोहर महाराज ने विधिपूर्वक उत्तरक्रिया संपन्न की। कुछ दिनों के बाद स्वयं श्रीप्रभु के मार्गदर्शन में संगम में श्री तात्या महाराज के समाधि मंदिर का कार्य पूर्ण हुआ। महाराजश्री के अनन्य भक्त तथा उनके आप्त सहयोगी हुमनाबाद के प्रभुभक्त काळप्पा वासगी ने मंदिर के निर्माण का संपूर्ण व्यव उठाया और एक सुंदर स्मारक को मूर्तरूप दिया। इस प्रकार तात्या महाराज श्रावण वद्य चतुर्थी के दिन सच्चिदानंदरूपी श्रीप्रभुचरणों में लीन हुए। उनकी १५८वीं पुण्यतिथि के अवसर पर हम समस्त भक्तजनों की ओर से श्री तात्या महाराज के चरणों में कृतज्ञतापूर्वक अपने अनंतकोटि नमन अर्पित करते हैं।
आज (बुधवार ५ अगस्त) अयोध्या नगरी में भव्य श्रीराममंदिर के भूमिपूजन का कार्यक्रम अत्यंत वैभव के साथ संपन्न हुआ। ज्ञातव्य है कि इस भूमिपूजन के कार्यक्रम में माणिकनगर की पवित्र मृत्तिका का एवं संगम के पावन जल का विनियोग किया गया। श्रीराममंदिर निर्माण के शुभारंभ के आनंद को एवं उल्लास को अभिव्यक्त करने के लिए सायंकाल प्रदोषपूजा के समय प्रभुमंदिर में विशेष दीपोत्सव का आयोजन किया गया एवं प्रभु से प्रार्थना की गई कि मंदिर निर्माण का कार्य निर्विघ्नरूप से संपन्न होकर शीघ्र ही प्रभु-रामचंद्र का भव्य, दिव्य एवं विराट् मंदिर अयोध्या नगरी में बने। अयोध्या में निर्माणाधीन मंदिर कोटि कोटि रामभक्तों की आस्था, श्रद्धा, सामाजिक सौहार्द्र, सांस्कृतिक समरसता एवं अचंचला भक्ति का प्रतीक बनेगा; ऐसा हमारा विश्वास है। श्री माणिकप्रभु संस्थान एवं समस्त प्रभुभक्तों की ओर से हम उन सबका अभिनंदन करते हैं, जिनके प्रयत्न एवं परिश्रम के फलस्वरूप यह स्वप्न साकार हो रहा है।
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