कृष्णा मजकडे पाहू नको रे माझी घागर गेली फुटून।। प्रभु महाराज द्वारा रचित इस प्रसिद्ध पद को मैंने अनेक बार सुना है और गाया भी है परंतु इस पद के अंदर जो गूढार्थ निहित है उससे मैं अनभिज्ञ था। सौ उमा हेरूर जी ने इस पद पर जो विवेचन किया है वह अत्यंत समर्पक एवं बोधप्रद है। उन्होंने इस पद के गंभीर अर्थ पर जो प्रगल्भ चिंतन और मंथन किया है वह सचमुच स्तुत्य है। ऊपर-ऊपर से भक्तिरस प्रधान लगने वाली इस रचना के अंदर वेदांत के कितने गंभीर सिद्धांत छिपे हुए हैं यह जानकर आश्चर्य हुआ। कृष्ण की दृष्टि पड़ते ही संचित की मटकी का फूटना, प्रारब्ध की झारी, संसाररूपी सुव्यवस्थित वेणी का खुलना और अंतिम पंक्ति में हरि भक्ति के मार्ग पर सम्हलकर चलने की जो बात है वह जानकर मैं मंत्रमुग्ध हुआ। अंतिम पंक्ति में ‘‘हरि चरणी चाले जपून’’ का जो अर्थ लेखिका ने लगाया है वह अत्यंत अनोखा है। हम अपनी सामान्य बुद्धि और लौकिक दृष्टि से जब प्रभु की वाणी को, उनके उपदेशों को उनकी रचनाओं को समझने का प्रयास करते हैं तो वास्तविक अर्थ से भटक जाते हैं और स्वकल्पित अवधारणाऍं बना लेते हैं। इसीलिए महाराजश्री ने कहा है ज्ञान मार्तांडा दिव्य दृष्टिने जाणा।। महापुरुषों की लीलाओं को तथा उनके कार्य को जानने और समझने के लिए दिव्य दृष्टि की आवश्यकता होती है। और मेरा मानना है, कि सौ उमा ताई को प्रभु की कृपा से वह दृष्टि प्राप्त हुई जिसके फलस्वरूप उन्होंने प्रभु महाराज द्वारा रचित इस दिव्य पद के भीतर छिपे अमृतमय रहस्य के दर्शन स्वयं किए और हमें भी करवाए। प्रभुस्वरूप के सतत अनुसंधान के फलस्वरूप लेखिका पर जो कृपा हुई है वह यहॉं इस लेख में दृग्गोचर है। मैंने जब इस लेख को पढ़ा और लेखिका द्वारा प्रतिपादित अर्थ को समझा तो मुझे ऐसा लगा जैसे सालों से छिपा हुआ कोई खज़ाना मिल गया हो। बुद्धि की खिड़कियों को खोलने वाला यह सुंदर एवं उदात्त विवेचन मन को आह्लादित करने वाला है। सभी प्रभुभक्तों से मेरा अनुरोध है, कि इस लेख को अवश्य पढ़ें और श्रीप्रभु के इस पद में छिपे अर्थ का अनुसंधान करें। हमारा संप्रदाय ज्ञानयुक्त भक्ति का मार्गदर्शन करता है। सांप्रदायिक रचनाओं को गाना, पढ़ना और उनके अर्थ का अनुसंधान करना यह प्रत्येक प्रभुभक्त का परम कर्तव्य है और यही सर्वोच्च उपासना भी है। हमारे प्रभु महाराज ने इतने प्रेम और करुणापूर्वक, इतनी सारी सुंदर-सुंदर रचनाओं का अमृतमय उपहार हमें दिया है वह हमारे ही उद्धारहित है। गुरुमहाराज से प्राप्त उस अमूल्य उपहार का यदि हम उपयोग नहीं करेंगें तो और कौन करेगा? आंख मूंदकर घंटों तक ध्यान धारणादि विविध कठिण क्रियाओं को करते रहने से बेहतर है, कि हम श्रीप्रभु के इन अमृतमय पदों पर चिंतन करें। ऐसा करने से निश्चित ही हम उस भाव से एकरूप होकर प्रभुमय हो जाऍंगे इसमें संदेह नहीं है।

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