श्री व्यंकम्मा देवी आराधना
दुंदुभिनाम संवत्सर श्रावण कृष्णा त्रयोदशी
शनिवार २३ अगस्त १८६२
भगवती व्यंकम्मा की आराधना संस्थान के प्रमुख कार्यक्रमों में से एक है। आज से 158 वर्ष पूर्व दुंदुभिनाम संवत्सर – श्रावण वद्य त्रयोदशी शनिवार 23 अगस्त 1862 को देवी व्यंकम्मा ने जिस अद्भुत रीति से देहत्याग कर अमरत्व का वरण किया वह सभी प्रभुभक्तों के लिए एक अत्यंत विस्मयकारी घटना है। आज के दिन हम स्मरण करते हैं उस अद्भुत घटना का जिस घटना ने माणिकनगर के इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
श्री दत्तात्रेयांची शक्ती।
नांवें असे जी मधुमती।
तीच व्यंकम्मा भगवती।
म्हणूनि मानिती प्रभुभक्त॥
सकलमत संप्रदाय में भगवती व्यंकम्मा की उपासना भगवान श्री दत्तात्रेय की मधुमती शक्ति के रूप में की जाती है। भगवती व्यंकम्मा आजीवन श्रीप्रभु चरणों की दासी बनी रहीं एवं उन्होंने अनन्य शरणागति एवं प्रभुसेवा का आदर्श स्थापित कर चित्सदानंद पद को प्राप्त किया।
अत्यंत कठोर तपस्या एवं श्रीप्रभुचरणों के प्रति अचंचला श्रद्धा के फलस्वरूप देवी व्यंकम्मा ने सद्गुरु की कृपा को संपादित किया था। समय-समय पर परीक्षाएँ लेकर श्रीप्रभु ने साध्वी व्यंकम्मा की भक्ति व श्रद्धा को परखा था। माणिकनगर ग्राम के बीचों-बीच स्थित हनुमान मंदिर के पास टेहळदास नाम का एक बैरागी और उसकी वृद्धा माता रहते थे। टेहळदास की वृद्धा माता को श्रीप्रभु से बहुत लगाव था और श्रीप्रभु भी उस बूढ़ी को अक्सर दर्शन देने के लिए झोपड़ी पर जाया करते थे। एक दिन जब श्रीप्रभु टेहळदास की कुटिया में थे, उस समय कुटिया में आग लग गई और देखते ही देखते आस पास की सारी झोपड़ियों को अग्नि ने झुलसा दिया। लोगों ने आग को बुझाने के लिए बहुत प्रयत्न किए परंतु विफल हुए। आस-पास के सारे लोग, शिष्य मंडली और तात्या महाराज सहित सारे ग्रामवासी शोकाकुल होकर रोने लगे, चारों ओर हाहाकार मच गया। इस संपूर्ण कोलाहल के बीच देवी व्यंकम्मा अत्यंत शांत मुद्रा में गहरी समाधि में लीन थीं। देवी व्यंकम्मा ने श्रीप्रभु के सच्चिदानंद स्वरूप को जाना था और वे श्रीप्रभु की लीला को, उनके खेल को भलीभांति समझती थीं। अस्तु इस बात का दृढ़ विश्वास देवी व्यंकम्मा को था कि श्रीप्रभु न आग से जल सकते हैं न पानी उन्हें भिगा सकता है – ‘नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।’ वे तो जन्म-मृत्यु-रहित साक्षात् परब्रह्म हैं। श्रीप्रभु ने देवी व्यंकम्मा की अंतिम परीक्षा ले ली थी। देवी व्यंकम्मा की ज्ञाननिष्ठा से प्रसन्न होकर श्रीप्रभु कुछ ही क्षणों में अपनी पीठ पर टेहळदास की माता को ढोए हुए व्यंकम्मा के सामने प्रगट हुए। समस्त जनता श्रीप्रभु को स्वस्थ देखकर हैरान रह गई। इस विचित्र घटना से जनमानस को देवी व्यंकम्मा की योग्यता का परिचय मिल गया।
कुछ दिनों के बाद श्रीप्रभु की आज्ञा से देवी ने अपनी चिरसमाधि का समय निश्चित किया। निश्चित तिथि के एक दिन पूर्व देवी ने रातभर अखंड भजन किया। बहुत देर तक भजन करती हुई नामस्मरण के आनंद में लीन देवी व्यंकम्मा भूमि पर गिर पड़ीं। अंतिम संस्कार के लिए जब देवी के सगे संबंधी उनके पार्थिव देह को उठाने के लिए गए तब देवी के देह से ॐकार की गूंज निकली। यह देखकर सब लोग डर गए और श्रीप्रभु के पास गए। वहाँ उपस्थित ब्राह्मण मंडली ने देवी व्यंकम्मा को श्रीप्रभु के चरणतीर्थ का प्राशन कराया। जिह्वा पर तीर्थ का स्पर्श होते ही उन्होंने उठकर पहले श्रीप्रभु के चरणों में वंदन किया और फिर विठाबाई अम्मा के चरणस्पर्श कर योगासन लगाकर पुनः अक्षय समाधि में लीन हो गईं और उन्होंने अपने भौतिक देह का त्याग कर दिया। श्रीप्रभु की अनुज्ञा से लोगों ने ‘अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त’ का घोष किया और देवी के पार्थिव शरीर को शिविका में बिठाकर समाधि स्थल की ओर ले गए। इस अंतिम यात्रा के समय देवी व्यंकम्मा ने देह पर शुभ्र वस्त्र, भाल पर चंदन, सर्वांग पर भस्म एवं कंठ में रुद्राक्ष भरण धारण किए हुए थे।
भस्म चर्चिलें सर्वांगाला।
भाळी शुभ्र गंधाचा टिळा।
गळ्यांत रुद्राक्षांच्या माळा।
शोभिली निर्मळा योगिनी ती॥
निजानंद में लीन देवी के कांतिमान मुख पर स्वात्मानंद का लावण्य छाया हुआ था। रास्ते में जगह-जगह पर लोगों ने वाद्यों की गड़गड़ाहट के बीच सुपारी, खजूर, नारियल, बतासे, अबीर, गुलाल, तुलसी और फूलों की बौछार से भक्तशिरोमणि देवी व्यंकम्मा को अपनी अंतिम श्रद्धांजलि समर्पित की। श्रीप्रभु ने सेवकों द्वारा शास्त्रोक्त विधि से समाधि की प्रक्रिया को संपूर्ण करवाया और स्वयं अपने हाथों से भक्तजनों में प्रसाद का वितरण किया। उस समय पर किसी भक्त ने श्रीप्रभु के समक्ष श्रीदेवी व्यंकम्मा के समाधि मंदिर के निर्माण का विषय निकाला तो श्रीप्रभु ने कहा “जब उसे मंदिर बनवाना होगा तब वह अपने सामर्थ्य के बल पर मंदिर का निर्माण अवश्य करवाएगी। हमें उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए।” सन् 1862 की श्रावण वद्य त्रयोदशी को भगवती व्यंकम्मा ने अपने सगुण रूप को आच्छादित किया एवं इस प्रकार माया ब्रह्म में लीन हो गई।
आज माणिकनगर में भगवती व्यंकम्मा का समाधि मंदिर एक शक्तिपीठ की भाँति संपूजित है। यहाँ भगवती व्यंकम्मा गुरुभक्तों पर कृपा कर तत्परता से उनकी मनोकामना पूर्ण करने के लिए भगवती मधुमती श्यामला का रूप धरकर बैठी हैं। श्री मार्तंड माणिक प्रभु महाराज के शब्दों में
पद्मासनी शुभ शांत मुद्रा
शुभ्रांबर कटि कसली हो।
परमप्रिय गुरुभक्ता सुखकर
वर देण्या ही सजली हो।।
Jai guru Manik
जय गुरू माणिक. खूप छान. धन्यवाद.
भगवती व्यंकम्मा देवीला आमचा शिर साष्टांग नमस्कार ????????
????” जय गुरुमाणिक “????
|| व्यंका तु अन तुच शामला ||
|| मधुमतीच्या उद्धारका ||
|| माणिका प्रभु माणिका ||
|| माणिका रे माणिका ||.
Meri maa jagatjanani Vishapalini
Meri maa venkamma tumari krupa hum par bani rahe
व्यंका नाम जगज्जननी
जय गुरु माणिक
Natamastak pranama. Pray goddess will continue to bless all of us in times to come
श्री दत्तात्रेयांची शक्ती।
नांवें असे जी मधुमती।
तीच व्यंकम्मा भगवती।
म्हणूनि मानिती प्रभुभक्त॥????
????????# श्री_माणिक्यप्रभोर्विजयते ||????????
????????|| व्यंका तु अन तुच शामला ||????????
????????|| मधुमतीच्या उद्धारका ||????????
????????|| माणिका प्रभु माणिका ||????????
????????|| माणिका रे माणिका || ????????
????????||जय गुरु माणिक ||????????
श्री दत्तात्रेयांची शक्ती।
नांवें असे जी मधुमती।
तीच व्यंकम्मा भगवती।
म्हणूनि मानिती प्रभुभक्त॥????