कईं मंदिरों के मुख्य द्वार पर आपने एक विक्राल राक्षस का चेहरा बना हुआ देखा होगा। बड़ी-बड़ी भयानक आंखे, मुह के बाहर लटकती लंबी जीभ और टेढ़े-मेढ़े दांतों वाला यह चहरा बड़ा ही उग्र होता है। परंतु देवालयों के मुख्य द्वार पर भला राक्षस का क्या काम? हमारे मन में ऐसा प्रश्न उठना स्वाभाविक है। मंदिरों के गोपुर पर, मुख्य महराब पर, अथवा दहलीज़ या चौखट पर भी यह विचित्र कलाकृति पायी जाती है। इस राक्षसी मुख को ‘कीर्तिमुख’ कहते हैं।
पुराणों में इस कीर्तिमुख का एक अत्यंत रोचक प्रसंग है। जालंधर नामक एक बहुत शक्तिशाली असुर था। जालंधर, माता पार्वती के रूप लावण्य से अत्यंत मोहित हो गया था और उसके मन में देवी से विवाह करने की कामना जाग्रत हुई थी। जालंधर ने राहु को दूत बनाकर माता पार्वती के पास अपना विवाह प्रस्ताव भेजा। राहू ने माता पार्वती को जालंधर का प्रस्ताव बताया और निर्लज्जतापूर्वक देवी के समक्ष जालंधर की प्रशंसा करने लगा। राहु की उन्मत्तता और दुःस्साहस को देखकर भगवान् शंकर अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोला। भगवान् के तीसरे नेत्र से ज्वाला की एक बड़ी लपट आई और उस ज्वाला से एक प्रचंड राक्षस का जन्म हुआ। भगवान् ने उस राक्षस को आज्ञा दी, कि वह राहु को तुरंत खा जाए। वह भयानक राक्षस राहु से कद में कईं गुना विशाल था। भगवान् की आज्ञा पाकर वह राहू पर टूट पड़ा। राक्षस का विकराल रूप देखकर राहु अपने प्राणों की रक्षा के लिए डर के मारे भागने लगा। जब वह जान गया कि अब उस राक्षस से बचना असंभव है और उसका अंत निश्चित है, तब राहु भगवान् की शरण में जाकर क्षमा याचना करने लगा। भगवान् शंकर अत्यंत दयालु हैं और सदा शरणागत की रक्षा करते हैं। करुणावश भगवान् ने राहु को उसके जघन्य अपराध के लिए क्षमा कर दिया और उस राक्षस से कहा, कि राहु को जाने दो। अब उस राक्षस ने भगवान् से प्रश्न किया, कि प्रभु, मेरा जन्म तो केवल राहु को खाने के लिए हुआ था परंतु अब जो आपने राहु को क्षमा कर दिया तो मैं अपनी भूख कैसे मिटाऊँ? अब मैं किसको खाऊँ? भगवान् बोले ‘तुम अपने आप को ही खा जाओ।’ जैसे ही राक्षस ने यह सुना, वह अपने आप को ही खाने लगा। धीरे-धीरे वह एक-एक करके अपने अवयवों को खाने लगा। अपने पैर, जंघाएँ, पेट और हाथों को जब उसने खा लिया तब केवल उसका मुह शेष रह गया था। भगवान् ने जब देखा कि राक्षस ने आज्ञा का पालन करते हुए सचमुच स्वयं को खा लिया है, तब भगवान् अत्यंत हर्षित हुए। भगवान् बोले ‘पुत्र, तुमने मेरी आज्ञा का पालन करके स्वयं को ही खा लिया है। तुमने अपनी कीर्ति से मुझे संतुष्ट कर दिया है। इस पराक्रम के लिए मैं तुम्हे ‘कीर्तिमुख’ यह नाम देता हॅूं और आज के बाद मेरे दर्शन के लिए आए प्रत्येक भक्त को पहले तुम्हारे दर्शन लेने होंगे।’
इसीलिए मंदिरों में और विशेषकर शिवालयों में गर्भग्रह की चौखट पर हम कीर्तिमुख को पाते हैं। द्वार के ऊपर अथवा नीचे दहलीज़ पर यह आकृति बनी होती है। मंदिर के मूल विग्रह के दर्शन से पहले दर्शनार्थियों को मुख्य द्वार पर कीर्तिमुख दिखता है और उसके बाद ही भगवान् के दर्शन होते हैं। माणिकनगर में भी प्रभु मंदिर के गर्भग्रह की पत्थर की चौखट पर कीर्तिमुख का शिल्प तराशा हुआ है।
यह तो हुई पौराणिक कथा। अब यह स्वाभाविक है, कि इस विचित्र कथा को पढ़ कर हमारे मन में कुछ संदेह उठ सकते हैं। स्वयं को खा लेने का अर्थ क्या है? भगवान् उस राक्षस पर इतने प्रसन्न क्यों हुए? भला उसने ऐसा कौनसा पराक्रम कर दिया जो भगवान् ने उसको इतना बड़ा गौरव प्रदान किया? पुराणों की कथाएँ बाहर से जितनी सरल दिखती हैं, भीतर से उतना ही गहरा अर्थ उनमें छिपा होता है। प्रत्येक कथा हमें वेदांत के किसी न किसी सिद्धांत के दर्शन कराती है और यह कथा भी वैसी ही है।
इस रहस्यमयी कथा का मर्म बड़ा ही सुंदर है जिसको जानने के लिए हमें इस प्रसंग का सूक्ष्म परिशीलन करना होगा। वेदांत का सिद्धांत है, कि आत्मज्ञान को प्राप्त करने के मार्ग में सबसे बड़ा प्रतिबंध हमारा अहं है। श्रीमार्तंडप्रभु तो हमें सचेत करते हुए कह रहे हैं – “अरे हे महावाक्य घे नीट कानी। स्वरूपी अहंता कदापी न आणी॥” हमारा ‘मैं पन’ ही हमारी आध्यात्मिक उन्नति की सबसे बड़ी बाधा है। जब तक हम अपनी अहंता को निःशेष नहीं करते तबतक हम अपने स्वस्वरूप से वंचित रहकर दुःख सहते रहते हैं। हम अपने अहंभाव के कारण ही संसार के बंधनों से बंधते हैं और अपने वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर पाते। श्री मार्तंडप्रभु कहते हैं – ‘‘प्रभु सन्निधी मीपणा तो नसावा।’’ हमारा जीवभाव ही हमें प्रभु से विमुख कर रहा है। अतः परमात्मप्राप्ति के लिए इस जीव भाव को, अहंकार को मिटाना नितांत आवश्यक है। प्रतिबिंब से तादात्म्य तोड़कर जब हम बिंब के साथ एकरूप होते हैं तब हम मुक्त हो जाते हैं। जो अपने अहं को, मैं पने को, मिटा देता है अथवा खा लेता है उसपर प्रभु अत्यंत प्रसन्न हो जाते हैं। अब आप यह जान गए होंगे कि, भगवान् शंकर उस राक्षस पर क्यों प्रसन्न हुए थे? अहंभाव को मिटाने की कीर्ति से ब़ढ़कर और कोई कीर्ति इस संसार में नहीं है इसीलिए भगवान् ने अपने आप को (अपने अहंभाव को) खा लेने वाले राक्षस पर मुग्ध होकर, उसको कीर्तिमुख का नाम दिया। श्रीप्रभु अपनी एक रचना में कहते हैं – ‘माणिक म्हणे पूर्ण राम मी झाले। मीपण माझे भंगले॥ सये मन राम रूपी रंगले॥ अहंभाव को भंग कर देने के बाद ही जीव राम के रंग में रंग जाता है।
कीर्तिमुख की कथा से एक और सिद्धांत उभरकर आता है। ऐसा है कि हमारी भूख, तृष्णा, कामना, इच्छा और वासनाओं का कोई अंत नहीं है। एक के बाद एक हमारी इच्छाएँ बढ़ती जाती हैं। कुछ कामनाओं की पूर्ति के बाद फिर मन चंचल हो जाता है और हम अपनी क्षुधा मिटाने के लिए विषयों के पीछे दौड़ते रहते हैं। इस प्रकार हमारा मन सदा अतृप्त ही रहता है। तो इस अतृप्त मन को कैसे तृप्त किया जाए? ऐसी कौनसी वस्तु है, जिसको प्राप्त कर लेने से हमारी सारी अपूर्णता क्षण में समाप्त हो जाए? हम पूर्ण हो जाएं, संतृप्त हो जाएँ ऐसा क्या है? यह असंभव सा प्रतीत हो रहा होगा, परंतु ऐसा बिलकुल हो सकता है। हम चाहे जितनी वस्तुओं को इकट्ठा कर लें, वो वस्तुएँ हमारी भूख नहीं मिटा सकतीं। हम पूर्णरूप से तृप्त तभी हो सकते हैं जब हम अपने अहंकार को समाप्त कर दें। जैसे कीर्तिमुख की भूख स्वयं को खाने के बाद ही शांत हुई थी उसी प्रकार हमारी भूख भी तभी समाप्त हो सकती है जब हम अपने आप को खा जाएँ अपने अहंभाव को समाप्त करें।
कीर्तिमुख ने जैसे अपने आप को मिटाने के लिए किसी अन्य की सहायता नहीं ली, उसने स्वयं ही प्रयत्न किया उसी प्रकार हमारा उद्धार भी केवल स्वयं के ही प्रयत्नमात्र से संभव है। ‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ कहकर भगवान् ने स्वयं इस बात की पुष्टि की है।
जब हम स्वयं को खा डालते हैं तब कामना करने वाला ही नही रहता और हमारी भूख सदा के लिए शांत हो जाती है। हमें परम समाधान मिलता है। हम परिपूर्ण हो जाते है। संतृप्त हो जाते हैं।
कीर्तिमुख, अहंकार पर विजय का प्रतीक है। मंदिरों के द्वार को भूषित करने वाला कीर्तिमुख साधकों को सदा इसी बात का स्मरण दिलाता रहता है, कि अहंकार को मिटाओ और चित्स्वरूप परमात्मा से एकरूप हो जाओ। अहंकार को मिटाना ही जगत् की सबसे बड़ी कीर्ति है, मानव जन्म की सबसे बड़ी उपलब्धि और सार्थकता है। अतः जिन्हें सदा के लिए अपनी चंचलता को, कामनाओं को, तृष्णाओं को मिटाना हो उन्हें वस्तुओं का पीछा छोड़कर अपने अहंकार को ग्रसने की साधना करनी चाहिए। अगली बार जब भी आप श्रीप्रभु की आराधना करने के लिए मंदिर में जाएँ तब पहले कीर्तिमुख को देखकर सावधान हों और अपनी अहंता को भुलाकर तल्लीनता से श्रीचरणों की उपासना से धन्यता पाएँ।
पदा पावण्या ज्ञान हे द्वार मोठे।
महाद्वार ओलांडिता वस्तु भेटे॥
महाद्वार ओलांडुनी आत जावे।
स्वये नासुनी मुख्य देवा भजावे॥
JAI Guru Nanak
Very narrative and lesson for all , congratulating for giving this information
कीर्तिमुख की कथा के माध्यमसे, अपना अहंकार कैसे मिटाएं, यह बहुत सरल रूपसे, बताया है, धन्य, जय गुरु माणिक
Apne badi sartal se hame samjaya ki jivan me ham log kaise rahana yahi uchit Marg hai ye Marg swikar Kiya to hamara jivan dhhyan hogayahi Prabhu seva hogi Jai guru manik
Jai guru Manik