श्री सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज की मातोश्री श्रीमती लक्ष्मीबाई साहेब को हम सब ‘मामीसाहेब’ के नाम से जानते हैं। सन् १९२८ में श्री शंकर माणिकप्रभु महाराज के साथ उनका विवाह हुआ और श्री मार्तण्ड माणिकप्रभु की पुत्रवधु के रूप में वे श्रीप्रभु परिवार में दाखिल हुईं। मामीसाहेब को ९ वर्षों तक श्रीमन्मार्तंड माणिकप्रभु महाराज की सेवा का लाभ प्राप्त हुआ। उन दिनों की एक घटना वे बार बार याद करके सुनाया करती थीं।

प्रतिवर्ष दत्त जयंती के दरबार के उपरांत श्री मार्तण्ड माणिकप्रभु महाराज कुलस्वामी श्री खंडेराय के दर्शन के लिए बाड़े में जाया करते थे। वहां घर की सौभाग्यवती स्त्रियां उन्हें आरती करतीं और शगुन के रूप में बेसन के लड्डू चांदी की कटोरी में श्रीजी के समक्ष रखती थीं। यह प्रथा कईं वर्षों से बाडे में चली आ रही थी। मामीसाहेब के विवाह के बाद सौभाग्यवती पुत्रवधु के रूप में यह उत्तरदायित्व उन पर आन पडा। १-२ वर्ष उन्होंने इस परंपरा को भली-भांति निभाया परंतु उन्होंने जब देखा कि बेसन के लड्डू को महाराज हाथ तक नहीं लगाते, और यह रिवाज केवल औपचारिकता मात्र बनकर रह गई है, तो उन्होंने एक वर्ष दरबार के उपरांत महाराजश्री जब बाडे में पधारे, तब केवल आरती की। मामीसाहेब ने उस वर्ष बेसन के लड्डू नहीं बनाए थे।

आरती के उपरांत महाराजश्री को उठना चाहिए था किंतु वे बैठे रहे। महाराजश्री ने आश्चर्यपूर्वक पूछा ‘‘क्यों? इस बार बेसन के लड्डू नहीं हैं क्या?’’ इस पर मामीसाहेब ने सकुचाते हुए तथा घबराते हुए उत्तर दिया ‘‘आप लड्डू तो खाते ही नहीं हैं, इसलिए मैंने सोचा, बनाकर क्या लाभ, अस्तु मैंने इस वर्ष लड्डू नहीं बनाए।’’ महाराजश्री ने मुस्कुराते हुए कहा ‘‘बेटी, प्रत्येक को अपना कर्तव्य सदा-सर्वदा निभाना चाहिए। मैं खाऊं या ना खाऊं यह मेरी मर्ज़ी है। तुम्हारा काम लड्डू बनाना है। जाओ, लड्डू बनाकर लाओ। तब तक मैं यहीं बैठूंगा।’’ करीब १ घंटे तक महाराजश्री वहीं बैठे रहे। शर्म एवं हड़बड़ाहट में मामीसाहेब ने किसी तरह बेसन भूनकर लड्डू बनाए और महाराजश्री के सामने लाकर रख दिए। उसमें से एक छोटा सा टुकड़ा महाराजश्री ने खाया और कहा ‘‘वाह, लड्डू बहुत अच्छे बने हैं।’’ फिर महाराजश्री बोले ‘‘अपने कर्तव्यों का सदा स्मरण रखा करो और उनके पालन में कभी भी कहीं भी कोई भी त्रुटि न हो इसके प्रति दक्ष रहो।’’

कर्तव्य के प्रति दक्ष रहने की महाराजश्री की आज्ञा का पालन मामीसाहेब ने आजीवन किया और जिस कुशलता से उन्होंने अपना उत्तरदायित्त्व निभाया, इतिहास इसका साक्षी है। महाराजश्री के ये वचन भले ही ८०-९० वर्ष पुराने हो, किंतु हमारे लिए वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।

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