एक बार नारदजी की हनुमानजी से भेंट हुई। दोनों परम भक्त, दोनों ज्ञानी और दोनों अतीव बुद्धिमान्। कुशल-क्षेम के पश्चात् नारदजी ने अपने स्वभाव के अनुसार हनुमानजी को छेड़ना प्रारंभ कर दिया। नारदजी ने कहा – “हनुमान्! तुम निस्संदेह सर्वश्रेष्ठ भक्त हो, तुम्हारी भक्ति अनुपम है, प्रभु के प्रति तुम्हारी निष्ठा अडिग है। तुम्हारा सेवा-भाव अनूठा है, तथापि इन सभी सद्गुणों के होते हुए भी तुम्हारी भक्ति को परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता!” भक्तिशास्त्र के आचार्य नारदजी के ऐसे वचन सुनकर हनुमानजी आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने कहा – “क्यों मुझ में क्या कमी है, जो आप ऐसा कह रहे हैं?” नारदजी ने कहा कि तुम्हारे एक पाप के कारण तुम्हारी भक्ति को परिपूर्ण भक्ति नहीं कहा जा सकता। इस पर हनुमानजी तुनक कर बोले – “कौनसा पाप?” नारदजी ने कहा – “लंका में रावण ने जब तुम्हारी पूँछ में आग लगाई तब तुमने लंका को ही जला डाला, लंका में लगी उस भीषण आग में अनेक निरपराध राक्षस मारे गए। अनेक गर्भवती राक्षसियों का गर्भपात हुआ। तुम्हरी शत्रुता रावण से थी, उसका तो तुम कुछ नहीं बिगाड़ पाए, उलटे तुमने निरपराध राक्षसों को आग में जलाकर मार डाला। यही पाप तुम्हारी भक्ति पर लगा कलंक है।” नारद के इन आरोपों को सुनकर हनुमान् मुस्कुराए। हनुमानजी ने अपने बुद्धिमतां वरिष्ठम् इस ब्रीद को सार्थ करते हुए नारद को समर्पक उत्तर देते हुए कहा – “जब मैंने लंकानगरी पर उड़ान भरी तब यह देखा कि उस नगरी में किसी के भी मुख में राम का नाम नहीं था। जिसके मुख में राम का नाम नहीं होता, वह मुर्दा होता है। मुर्दो को जलाकर सद्गति देना पुण्य का काम है और मैंने वही पुण्य का काम किया है, मैंने कोई पाप नहीं किया।” हनुमानजी के इस चातुर्य पर नारदजी प्रसन्न हुए और उन्होंने दृढ़ आलिंगन से हनुमानजी का अभिनंदन किया।

हनुमानजी ने जो कहा वह शत प्रतिशत सत्य है। हम देखते हैं कि जब शवयात्रा चलती है तब अर्थी पर लेटे मुर्दे के अतिरिक्त शेष सभी लोग राम का नाम लेते हुए चलते हैं; केवल मुर्दा ही राम का नाम नहीं लेता। श्रीमद्भागवत में भी कहा गया है – यस्याखिलामीवहभिः सुमंगलै: वाचो विमिश्रा गुणकर्मजन्मभिः। प्राणंति शुंभन्ति पुनंति वै जगत् यास्तद्विरक्ता: शवशोभना मता:॥ अर्थात् उसके गुण, चरित्र, अवतार मंगलमय हैं, उसके श्रवण चिंतन से सकल पापों का नाश होता है, उसका वर्णन करनेवाली वाणी जगत् को चैतन्य व शोभा देती है, जो वाणी उसका वर्णन नहीं करती वह कितनी भी मधुर क्यों न हो, सज्जन उसे प्रेत का अलंकार ही मानते हैं।

प्रभु महाराज भी कहते हैं – भजन बिना तू सुन नर मूरख। मुर्दा काहे को सिंगारा रे। जो मुख भजन नहीं करता, प्रभु का नाम नहीं लेता, वह मुर्दे के समान है। क्योंकि एक अकेला परमात्मा ही चेतन है, उसके अतिरिक्त बाकी सब जड है। चैतन्यरूप परमात्मा की विस्मृति जडता नहीं तो और क्या है? परमात्मा के स्मरण का एकमेव साधन उसका नाम है। अत: मन से प्रभु का स्मरण और वाणी से प्रभुनाम का उच्चारण निरंतर होना चाहिए। और यह भी स्मरण रहे कि प्रभु का नाम लेने की बुद्धि भी चंद भाग्यवानों में ही उदित होती है। अत: मन-बुद्धि-वाणी में प्रभुनाम को धारण करने की बुद्धि आप में जाग्रत हो, ऐसा शुभाशीर्वाद प्रेषित करता हूँ।

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