श्रीसंस्थान में गादी अष्टमी के पर्व की अपनी एक अलग विशेषता है। इस पर्व का इतिहास श्री सदगुरू मार्तंड माणिकप्रभु महाराज के जीवन की अत्यंत महत्वपूर्ण घटना से जुड़ा हुआ है।

सन् १९१६ में श्री प्रभु के महिमामंडित सिंहासन पर श्रीमन्मार्तंड माणिकप्रभु महाराज विराजमान् थे। वर्तमान में जहाँ उनका समाधि मंदिर स्थित है, वहीं औदुंबर वृक्ष की छाया में उस समय श्रीजी का देवघर (पूजा घर) हुआ करता था। उस स्थान पर उत्तराभिमुख एक छोटा सा कमरा था, जहाँ श्रीजी नित्य अनुष्ठान किया करते थे। श्रीजी ने अंतिम समय तक कभी भी अपने नित्याह्निक एवं पूजा पाठ में खंड पड़ने नहीं दिया। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी श्रीजी बिस्तर पर लेटे-लेटे ही नित्याह्निक कर्म करते रहे ऐसा बताया जाता है।

नलनाम संवत्सर – सोमवार ७ अगस्त १९१६ – श्रावण शुद्ध अष्टमी के दिन श्रीजी दोपहर के समय देवघर में अपना नित्यानुष्ठान कर रहे थे। सत्पुरुषों की पूजा पद्धति हमारी पूजा से बहुत भिन्न होती है। श्रीजी अपने एक पद में कहते हैं “षट्चक्र अर्चना पात्र सुदीक्षा मंत्र हर्ष मधुधारा। सर्वात्म शक्ति लय शुद्ध शांभवी मुद्रा॥”    श्रीजी कहते हैं “हे महात्रिपुरसुंदरी देवि, मैं आपकी अर्चना अपने मूलाधार आदि छः चक्ररूपी पात्रों द्वारा करता हूँ, मेरे सद्गुरु द्वारा दीक्षित मंत्र के जप से होने वाले हर्षातिरेक से मधु की धारा समस्त शरीर में स्रवित होने लगती है। शांभवी मुद्रा से मेरी समस्त वृत्तियों का विलय आपके सर्वात्म शक्ति स्वरूप में हो जाता है।” ऐसी ही परापूजा में श्रीजी उस समय मग्न थे। हरिद्रा, कुंकुम, गंध, पुष्प, धूप एवं दीप से श्रीप्रभु की आराधना करने के उपरांत अपने मन-बुद्धि को ही नैवेद्य के रूप में समर्पित कर श्रीजी ने आत्मज्योति से श्रीप्रभु की आरती संपन्न की। नमन करने के लिए जैसे ही श्रीजी झुके, वहां एक दैदीप्यमान तेज:पुंज प्रगट हुआ। भगवान् के विश्वरूप का वर्णन संजय ने इन शब्दों में किया है – “दिवि सूर्य सहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता। यदि भा: सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः॥”   (यदि आकाश में हज़ारों सूर्य एक साथ उदित हों तो उनका प्रकाश शायद प्रभु के इस तेज की समता न कर सके।) उस प्रकाश से साक्षात् श्रीप्रभु महाराज सगुण रूप में श्रीजी के समक्ष प्रगट हुए। श्रीजी को उस स्थान पर श्रावण शुद्ध अष्टमी के दिन श्रीप्रभु के सगुण साकार रूप के दर्शन हुए।

श्रीप्रभु और श्रीजी के बीच क्या संवाद हुआ और श्रीप्रभु किस स्वरूप में प्रगट हुए इसका हमें कोई ज्ञान नहीं है परंतु “झालो आम्हीं बहु धन्य रे। भेटले सगुण हे ब्रह्म रे।।”    यह अनुभूति श्रीजी को वहाँ हुई यह हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं। अपनी अनेक रचनाओं में श्रीप्रभु के सगुणस्वरूप के साक्षात्कार का जो वर्णन श्रीजी ने किया है वह उनकी इसी दिव्यानुभूति से जुड़ा हुआ है।

श्रीजी को जिस स्थान पर श्रीप्रभु का साक्षात्कार हुआ था वहीं उन्होंने उसी दिन श्रीप्रभु की ‘गादी’ प्रस्थापित की। इसीलिए श्रावण शुद्ध अष्टमी को श्रीसंस्थान में ‘गादी अष्टमी’ कहा जाता है।

इस घटना के बाद श्रीजी के प्रिय शिष्यों ने जब श्रीजी से श्रीप्रभु के सगुण स्वरूप के दर्शन के अनुभव का वर्णन करने का आग्रह किया तब श्रीजी बोले “पूर्णकृपे कृपा बोलवेना। अनुभवे अनुभव ही साहीना। बोधे बोद जाहली कल्पना। मृत्यु पावली स्फूर्ति वासना॥”    श्रीजी ने अपने शिष्यवृंद को समझाते हुए कहा ‘मेरे सद्गुरु की मुझपर पूर्णकृपा हुई है और उस पूर्णकृपा का वर्णन शब्दों में करना असंभव है और क्योंकि श्रीप्रभु अनुभव से ही जाने जा सकते हैं किंबहुना वे ही अनुभवरूप हैं। इसीलिए मैं उस अनुभव का वर्णन नहीं कर सकता। आत्मबोध की ज्वाला ने मेंरी कल्पनाओं को भस्मसात् कर दिया है। अस्तु मैं अब उस अनुभव की कल्पना भी नहीं कर सकता और मेंरी वासनाएँ भी मृत हो जाने के कारण मुझे महामौन का वरण करना पड़ रहा है।

सन् 1916 से लेकर आज तक प्रतिवर्ष श्रावण शुद्ध अष्टमी की तिथि को श्रीसंस्थान में ‘गादी अष्टमी का पर्व मनाया जाता है। इस अवसर पर श्रीजी की समाधि की महापूजा एवं श्रीजी द्वारा प्रस्थापित श्रीप्रभु की गादी की भी पूजा की जाती है। उस परमपावन दिवस की स्मृति से प्रेरणा पाकर हमें सदा अपनी आध्यात्मिक साधना को प्रबल बनाने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। कृपा की अभिलाषा से पूर्णकृपा की इस कथा का मनन चिंतन करने वाले सद्भक्तों पर श्रीप्रभु की पूर्णतमकृपा अवश्य होगी इसमें तिल मात्र भी संदेह नहीं है।

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